New

होम -> सियासत

 |  4-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 19 जनवरी, 2016 06:57 PM
सुशांत झा
सुशांत झा
  @jha.sushant
  • Total Shares

किसी की भी मृत्यु या आत्महत्या दुखद है, उसके परिवार वालों के लिए भी और परिजनों के लिए भी. लेकिन हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित की आत्महत्या पर जो राजनीति हो रही है, वो उससे भी दुखद है. दुखद ये भी है कि राजनीति उसकी आत्महत्या से पहले शुरू हो चुकी थी. लेकिन यहां आम चर्चा से अलग कुछ अन्य बातों पर भी गौर करना जरूरी है जो सामने नहीं आ रही है.

कोई पूछे कि अंबेडकर के नाम पर बना संगठन याकूब मेनन की फांसी का विरोध क्यों कर रहा था या 'बीफ पार्टी' का आयोजन क्यों कर रहा था-तो इसका मासूम सा जवाब है कि पहला काम आधुनिक न्याय-बोध के साथ मानवतावाद के लिए था और दूसरा काम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (जिसमें भोजन की स्वतंत्रता भी है) के लिए था! जबकि हकीकत ये है आमतौर पर ये विचलनकारी और विद्वेषक करतूतें कट्टरपंथी वामपंथी संगठनों की हैं जिनकी बानगी हम पिछले वर्षों में JNU में महिषासुर दिवस, कश्मीर की आजादी और अन्य अनेक राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में पाते हैं.

इसे भी पढ़ें: वेमुला की मौत के लिए क्या वाकई कोई जिम्मेदार नहीं है?

इसमें आश्चर्य नहीं कि इसके तार कहीं न कही साम्राज्यवादी मानसिकता से ग्रस्त ईसाई मिशनरी संगठनों तक जाते हैं-महिषासुर सम्मेलन वाली पत्रिका 'फॉरवर्ड प्रेस' के प्रकाशक-मुख्य संपादक इवॉन कोस्का को याद कीजिए, थोड़ी तस्वीर साफ दिखेगी. कहने की जरूरत नहीं है कि दलित छात्रों और उनकी ऐतिहासिक परिस्थितियों को मोहरे की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है और आगे भी इसके भीषण संकेत हैं.

बाबा साहब अंबेडकर, जिनके नाम पर ये छात्र संगठन बना है, हिंदू कट्टरता के जितने विरोधी थे उससे कम इस्लामिक कट्टरता के नहीं थे जिसका एक जघन्य रूप याकूब मेनन था और जिसकी फांसी का विरोध रोहित और उसका संगठन कर रहा था. यहां तो बाबा साहब की आत्मा भी कहीं बुद्ध-लोक में बैठकर आंसू बहा रही होगी. बाबा साहब ने मुस्लिम कट्टरता के बारे में भी कुछ विचार अपने साहित्य में भी व्यक्त किए हैं, सुधीजन उसे भी पढ़ लें. समान नागरिक संहिता पर बाबा साहब के विचार अभी तक ठीक से प्रचारित नहीं हुए हैं-नेहरू से उनका एक मतभेद ये भी था.

इतिहासकार पेट्रिक फ्रेंच अपनी किताब 'इंडिया: ए पोर्ट्रेट' में कहते हैं कि जब उन्होंने दलित विषयक सामग्रियों पर शोध शुरू किया तो वे आश्चर्य में पड़ गए. आधुनिक काल के अधिकांश प्राथमिक और द्वीतीयक लिखित स्रोत जो उन्हें मिले वे छद्म इसाई संगठनों द्वारा दलित नामों से चलाए जा रहे थे. ऐसे में उन्होंने सीधे आम दलितों से साक्षात्कार लेना ज्यादा मुनासिब समझा. इस आलोक में फिर से एक बार फॉरवर्ड प्रेस, बीफ पार्टी और अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोशिएशन को याद कीजिए.

बाबा साहब अंबेडकर आधुनिक काल में समाज में भेदभाव के विरोधी और समानता के संभवत: सबसे बड़े समर्थक थे. हिंदू धर्म की जातीय कट्टरता का विरोध उनका लक्ष्य था लेकिन भारत विरोध नहीं. सबसे बड़ी बात वे वामपंथी नहीं थे, उन्हें इस देश की माटी से और इसकी संस्कृति के उत्तम अंशों से प्यार था.

दिक्कत ये है कि जो अंबेडकर कभी वामपंथी नहीं रहे, जो मुक्त बाजार व्यवस्था के समर्थक रहे, राष्ट्रवाद के प्रति समर्पित रहे, मजबूत विदेश-नीति के उद्घोषक रहे, उनके अनुयायियों के बीच छद्म रूप से वामपंथी तत्व घुसपैठ कर गया है जिसका एक बड़ा हिस्सा सायास या अनायास रूप से राष्ट्रविरोधी है. हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित की मासूम लेखनी उसके निर्दोष व्यक्तित्व को दर्शाती है, लेकिन अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोशिएशन के तमाम कृत्य ऐसे ही हैं जैसे JNU के अतिवादी वाम-संगठनों के होते हैं.

ऐसा कहीं से नहीं लगता है कि अंबेडकर स्टूडेंट्स यूनियन दलितों के हित में एकाग्र था, बल्कि वह तो अतिवादी वाम-संगठनों की छाया के रूप में सायास या अनायास व्यवहार कर रहा था. हालांकि भारतीय वामपंथ के अधिकांश हिस्सों के राष्ट्रविरोधी चरित्र पर चर्चा करने का यह उपयुक्त स्थान नहीं है. डॉ राममनोहर लोहिया की बात को उद्धृत करें तो साम्यवाद और आधुनिक पूंजीवाद दुनिया पर फिर से कब्जा करने के लिए यूरोप का आखिरी हथियार है-चूंकि प्रत्यक्ष नियंत्रण का उपनिवेशवादी दौर खत्म हो चुका है!  

हां, ये सही है कि भारतीय शिक्षण तंत्र (और शासन के अन्य तंत्रों को भी) अपने आप में सुधार लाना होगा कि वे छात्र आत्महत्या, कैम्पस में दलित उत्पीड़न के आरोपों या स्कॉलरशिप राशि में देरी से होनेवाली समस्याओं से निपटने में परिपक्व साबित क्यों नहीं हो रहे हैं? क्या ये सवाल सिर्फ जातीय ब्राह्मणवाद से जुड़े हैं या इसकी जड़ें पूरे तंत्र की कई कमजोरियों तक पसरी हुई हैं?

अंत में मूल विषय पर आते हुए इतना ही कहा जा सकता है कि एक संभावना-शील नौजवान और निर्दोष आत्मा रोहित असमय ही राजनीति का शिकार हो गया. लेकिन दलित संगठनों को इस बात पर अतिरिक्त रूप से चौकन्ना रहने की जरूरत है कि उनके बीच अतिवादी उग्र वाम और साम्राज्यवादी मानसिकता वाले ईसाई मिशन तत्वों की अवैध घुसपैठ न हो और समानता की लड़ाई में वे अपने लक्ष्यों से विचलित न हो जाएं.

लेखक

सुशांत झा सुशांत झा @jha.sushant

लेखक टीवी टुडे नेटवर्क में पत्रकार हैं.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय