New

होम -> सियासत

 |  7-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 05 जनवरी, 2017 05:09 PM
अरविंद जयतिलक
अरविंद जयतिलक
  @arvind.jaiteelak.9
  • Total Shares

वर्चस्व की जंग के बीच भले ही मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनके पिता मुलायम सिंह यादव के दरम्यान सीज़फायर का एलान न हुआ हो और दोनों तरफ से तनातनी बनी हो. पर सियासी वर्चस्व जताने की इस आपाधापी में घंटे-आधे घंटे के लिए क्रांतिकारी बने अखिलेश यादव और पुराने जमींदारों की तरह बर्ताव करते देखे गए सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव दोनों के बीच समाजवादी किले पर कब्जेदारी की जंग आखिरकार एक सियासी नाटक ही साबित हो रहा है.

जरा गौर कीजिए कि गत शुक्रवार रात तक मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और मुलायम-शिवपाल यादव धड़ा जिस तरह बाहें चढ़ाए आरपार की जंग के लिए तैयार दिख रहा था वहीं शनिवार को महज चार-पांच घंटे में अचानक यह तूफान शांत हो गया. दोनों धड़ बेहद चतुराई से गढ़ी-बुनी गयी पटकथा के मुताबिक एकदूसरे के आगे 45 डिग्री पर झुक गए जो बताने के लिए पर्याप्त है कि पूरी पटकथा अखिलेश की छवि निखारने और उन्हें ही भविष्य का नेता प्रोजेक्ट करने के लिए तैयार की गयी थी.

mulayam-singh-yadav6_010517044603.jpg
 समाजवादी नाटक की शानदार पटकथा

पटकथा के दूसरे दृश्य में रविवार को समाजवादी पार्टी का विशेष राष्ट्रीय अधिवेशन आहुत किया गया जिसमें अखिलेश यादव को राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनकर उधर चाचा शिवपाल की प्रदेश अध्यक्ष से हटा दिया गया. इसी क्रम में महासचिव अमर सिंह की भी पार्टी से छुट्टी कर अखिलेश के बाहुबली होने का एहसास करा दिया गया. गौर करें तो इस सियासी नाटक से न सिर्फ सत्ता-सल्तनत की गरिमा क्षत-विक्षत हुई है बल्कि विपक्षी दलों के इस दलील और धारणा की पुष्टि भी हुई है कि यह सारा प्रहसन अखिलेश सरकार के राजकाज की नाकामी से उत्पन्न आक्रोश से जनता का ध्यान बंटाने और अखिलेश को ताकतवार दिखाने के लिए रचा गया.

ऐसे में अब आवश्यक हो जाता है कि इस नाटक के अहम किरदारों की भूमिका की पड़ताल हो और असली सच देश व राज्य की जनता के सामने आए. बेशक लोकतंत्र में सियासी नाटक सत्ता-सिंहासन तक पहुंचने का आसान मार्ग होता है लेकिन वह कभी भी जनतंत्र के विस्तार और सत्ता की मानवीयता की शर्तें तय नहीं करता. जरा इस नाटक की बारीकियों पर नजर डालिए तो समझ में आ जाएगा कि यह नाटक सितंबर महीने में तब शुरु हुआ जब देश के तमाम टीवी चैनलों ने अपने सर्वेक्षण में उद्घाटित किया कि 2017 विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी पिछड़ रही है और भाजपा तथा बसपा आगे है.

ये भी पढ़ें- शिवपाल ने चुपके से पंचर कर दी अखिलेश की साईकिल

सर्वेक्षण में बताया गया कि राज्य की जनता राज्य में बिगड़ती हुई कानून-व्यवस्था, अराजकता, चोरी, डकैती, हत्या, बलात्कार, दंगे व अल्पसंख्यक तुष्टीकरण को लेकर बेहद नाराज है और चुनाव में अखिलेश सरकार को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. सर्वेक्षण के संकेतों से समाजवादी पार्टी में खलबली मचना स्वाभाविक था. फिर सरकार के रणनीतिकारों ने अखिलेश यादव की छवि गढ़ने के लिए पटकथा लिखनी शुरु कर दी जिसके तहत कुछ मंत्रियों की बलि ले ली गयी. लेकिन तब भी बात नहीं बनी तो पारिवारिक संघर्ष को हवा दी गई. जहां मुलायम सिंह यादव और उनके अनुज शिवपाल सिंह यादव सरकार के भ्रष्ट बर्खास्त मंत्रियों के साथ खड़े हो गए वहीं अखिलेश यादव सख्त तेवर अपनाए दिखे जिसके पीछे उनका मकसद यह जताना था कि वे भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ हैं.

लेकिन इससे भी जब बात नहीं बनी तो फिर आपसी टकराव को महाभारत की शक्ल देकर राजपथ को कुरुक्षेत्र का मैदान बना दिया गया. अखिलेश और मुलायम धड़े के बीच समाजवादी सैनिक बंट गए और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने अपने सुपुत्र मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और महासचिव रामगोपाल यादव को पार्टी से 6 साल के लिए निष्कासित कर दिया. एक कहावत है कि बुढ़े शेर को अपनी बादशाहत कायम रखने के लिए अपने बच्चों की कुर्बानी देनी पड़ती है. एक चतुरसुजान की तरह मुलायम सिंह यादव ने भी इस कहावत को चरितार्थ करते हुए अपनी वजूद को मिल रही चुनौती को ठेंगा दिखाने वालों के विरुद्ध सख्त रुख अख्तियार किया.

31samajwadi2_010517044829.jpg
 बेटे की राह में आखिरी रोड़ा बने चाचा शिवपाल सिंह यादव किनारे लग गए

लेकिन कहते हैं न कि हजारों हसरतों का इंकलाब वारिस के प्रति दीवानगी को दुनिया के सामने ला ही देता है. ठीक वैसा ही हुआ. पटकथा के मुताबिक आजम खां सरीखे कुछ किरदार अचानक प्रकट हुए और मेल-मिलाप की कोशिशें तेज कीं. फिर मुलायम सिंह यादव देर तक अपनी जिद्द पर अड़े नहीं रहे और अपने सुपुत्र की छवि जिसे कार्यकर्ताओं ने नायक सरीख बना दिया, उसके आगे घुटने टेकने स्वीकार किए. अब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री ही नहीं बल्कि समाजवादी के नए सुल्तान भी बन गए हैं और पिता मुलायम सिंह यादव ने बेहद खूबसूरती से अपने पैर पीछे खींच लिए हैं. उनका मकसद पूरा हो गया. उनके बेटे की राह में आखिरी रोड़ा बने चाचा शिवपाल सिंह यादव किनारे लग गए और उधर अमर सिंह जो गाहे-बगाहे मुलायम सिंह के जरिए अपनी ताकत का एहसास करा उत्तर प्रदेश की नौकरशाही पर रुआब गांठते थे वे भी पार्टी से बेदखल कर दिए गए. अब उन्हें सियासत में बने रहने के लिए नया ठिकाना ढुंढ़ना होगा. अब मुलायम सिंह यादव और उनके अनुज शिवपाल सिंह यादव दुनिया को दिखाने के लिए और राष्ट्रीय अधिवेशन की कार्रवाई को असंवैधानिक ठहराने के लिए चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटा रहे हैं ताकि दुनिया को यह न लगे कि उनका खेल महज सियासी प्रहसन भर है.

लेकिन कहते हैं न कि झूठ की जुबान बुढ़ापे की जान की तरह होती है. सच पर परदादारी नहीं चलती. उसे जितना दबाया जाता है उतना ही ज्यादा उछलता है. बहरहाल इस नाटक में किरदारों ने चाहे जितना शानदार अभिनय किया हो पर समाजवादी किरदारों का असली चेहरा देश के सामने आ गया है. समाजवादी पार्टी के सभी किरदार रंगे हाथ पकड़ लिए गए हैं. बेशक सियासी नाटक में अखिलेश यादव ने गढ़ी-बुनी गयी सियासी पटकथा के मुताबिक दो सैकड़ा विधायकों को पक्ष में लामबंद कर अपने ही वालीद को पटकनी देने में कामयाब रहे लेकिन बल खाती सियासत के लहरों पर उनसे जिस बगावत की इबारत लिखने की उम्मीद थी उसमें बुरी तरह नाकाम रहे. उनकी बगावत से पहले तो समाजवादी कार्यकर्ताओं और देश-समाज को लगा कि शायद वे डा0 लोहिया के समाजवादी रास्ते पर आगे बढ़ सरोकारी राजनीति को धार देंगे और परिवारवाद की सियासत की मोह से बाहर निकलेंगे.

ये भी पढ़ें- बीजेपी बना रही है सपा के 'फायदे' वाली रणनीति !

लेकिन गौर करें तो वे अन्ततः परिवार के खोल में ही घुसते नजर आए. जरा फर्ज कीजिए कि समाजवादी पुरोधा डा. राममनोहर लोहिया आज जीवित होते तो उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार में मचे घमासान पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होती? वे शह-मात की इस विद्रुप व बनावटी सियासत को देख अपनी आंखों पर पट्टी बांध लेते या समाजवादी सरकार से उसके समाजवादी कहलाने का तमगा ही छीन लेते? वे समाजवाद के झंडाबरदारों से इतना तो जरुर ही पूछते कि यह कैसी समाजवादी सरकार है जिसके रहनुमा जनता के हितों की चिंता छोड़ सत्ता पर निर्णायक कब्जेदारी और एकदूसरे को निपटाने का अभिनय कर रहे हैं? उनका यह भी सवाल होता कि यह किस तरह की सरकार है जो एक मंत्री को भ्रष्टाचार के आरोप में पहले बर्खास्त करती है और फिर उसके सिर पर तख्तो-ताज रखकर दुध का धुला होने का ड्रामा करती है? वे जीवित होते तो शायद इस तथाकथित समाजवादी संघर्ष को इंकलाब नहीं बल्कि विश्वासहीनता की दायरा का विस्तार और कबीलाई संघर्ष का नमूना भर कहते.

इस बनावटी संघर्ष में भले ही अखिलेश यादव का चेहरा चमकाने की बेजोड़ कोशिश हुई है और एक हद तक कामयाब भी हुए हैं पर समाजवादी पार्टी को इस धारणा पर पहुंचना उचित नहीं कि उसकी कपट कहानी पर पर्दा पड़ जाएगा और वह 2017 का चुनावी जंग फतह कर लेगी. समाजवादी पार्टी को समझना होगा कि हर बगावत का एक निष्कर्ष होता है लेकिन अखिलेश यादव की बगावत कुलमिलाकर पटकथा के अपेक्षित धारणाओं का प्रतिफल भर है जिससे न तो राज्य का भला होने वाला है और न ही समाजवादी पार्टी का. कुल मिलाकर उनका नाटक और अभिनय अस्तित्व के मूल पर आघात ही है जिसका गलत-सही अंदेशा देखने के लिए उन्हें तैयार रहना होगा.

लेखक

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय