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Updated: 08 नवम्बर, 2016 05:06 PM
राहुल मिश्र
राहुल मिश्र
  @rmisra
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प्रशांत किशोर जानते हैं कि राहुल गांधी की स्ट्रैटेजी कारगर हो न हो, इसका अगर उन्हें कोई श्रेय नहीं मिलना है तो उनकी किसी तरह की फजीहत भी नहीं होगी. ऐसा इसलिए भी क्योंकि 2019 के चुनावों में अभी काफी वक्त है - और 2017 के चुनावों के लिए सही स्ट्रैटेजी उनके हाथ लग चुकी है.

अब देखना यह है कि 2019 की ग्रैंड स्ट्रैटेजी से पहले उत्तर प्रदेश चुनाव की स्ट्रैटेजी वह किसके हवाले करते हैं और उनके चलते किसे सत्ता तक पहुंचने की चाबी मिलती है?

उत्तर प्रदेश चुनावों के मद्देनजर बीजेपी विरोधी राजनीतिक दलों के बीच की राजनीति एक ‘पेनड्राइव’ में कैद हो चुकी है. पेनड्राइव में मौजूद डेटा पर प्रशांत किशोर का कॉपीराइट है. अपनी नई स्ट्रैटेजी के साथ प्रशांत किशोर प्रदेश के मुगलई बगीचे में डेरा डालकर बैठे हैं. और मुलाकात कर रहे हैं हर उस पार्टी से जिसे राज्य के आगामी चुनावों के बाद बीजेपी की सरकार बनने का डर सता रहा है.

यह डर और भयावह ख्वाब में बदल जाता है क्योंकि 2017 में कहीं ये डर सच साबित हुआ तो 2019 में उनकी पार्टी समेत पूरी की पूरी राजनीति हाशिए पर होगी.

क्या है किशोर की पेनड्राइव में?

प्रशांत किशोर राजनेता नहीं हैं. वह एक पोलिटिकल स्ट्रैटेजिस्ट हैं. उनका काम राजनीतिक दल को चुनाव लड़ने का तरीका बताने का है. चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल किस तरह का प्रचार अभियान तैयार करें कि उन्हें ज्यादा से ज्यादा फायदा पहुंचे, यही काम प्रशांत किशोर करते हैं. यह सभी काम कुछ समय पहले तक किसी भी राजनीतिक दल के वो चुनिंदा लोग किया करते थे जिनके पास वोटर लिस्ट के साथ-साथ बूथ लेवल तक का अनुमानित जातिगत आंकड़ा हुआ करता था. लेकिन बीते एक दशक में राजनीतिक दलों के सामने सोशल माडिया बड़ी चुनौती बन कर आई और वे इसे समझ पाने में विफल होने लगे. परंपरागत आंकड़ों को टेक्नोलॉ़जी में भी पिरोने का काम प्रशांत किशोर ने इस दौरान कर लिया है.  

सोशल मीडिया के असर से देश और राज्य स्तर पर व्यक्तिगत राजनीतिक करिश्मा धूमिल होने लगा था. ऐसे समय में प्रशांत किशोर आगे आये और साबित किया कि उनके पास राजनीति की इस चुनौती का जवाब है. यह भी सच है कि देश की राजनीति में वह एक यूथ फेस बनकर उभरे जिसका चुनावों को देखने का एक नया नजरिया था. लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि यह नजरिया भी जात-पात और धर्म के उसी परांपरागत आंकड़ों पर निर्भर रहा जिसका इस्तेमाल राजनीतिक दल सदियों से करते आ रहे थे.

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2014 का आम चुनाव

2014 लोकसभा चुनावों के दौरान प्रशांत किशोर ने गुजरात में बैठकर राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की राष्ट्रीय छवि बनाने की स्ट्रैटेजी तैयार की. स्ट्रैटेजी इतनी सटीक बैठी कि मोदी पूर्ण बहुमत के साथ देश के प्रधानमंत्री बन गए. ये स्ट्रैटेजी बनाते वक्त प्रशांत किशोर के पास नरेन्द्र मोदी के उस कार्यालय का कंट्रोल रहा जहां वोटर से जुड़ी सभी जानकारी पहुंचती थी.

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 राष्ट्रीय छवि निर्माण की एक कारगर नीति का नतीजा

वोटर का नाम, पोलिंग बूथ, जाति, धर्म, आर्थिक स्थिति जैसे तमाम आंकड़े उनकी मुठ्ठी में थे. इन आंकड़ों को आगे बढ़ाते हुए प्रशांत किशोर ने इसमें सोशल मीडिया पर मौजूद लोगों का पूरा खाका तैयार किया. सोशल मीडिया पर लोगों की पसंद, जरूरत और मुश्किलों की लिस्ट तैयार की. सोशल मीडिया पर मौजूद लोगों से सीधे संपर्क के माध्यमों को मजबूत किया. और इसके बाद इन सभी आंकड़ों को आधार बनाते हुए मोदी की छवि निर्माण का काम किया. यही स्ट्रैटेजी मोदी की जीत का आधार बनी और फिर आगे चल कर नीतीश कुमार की कामयाबी का फॉर्मूला भी.

2015 का बिहार चुनाव

आम चुनाव के नतीजों के विश्लेषण से प्रशांत किशोर ने समझ लिया कि देश में मोदी लहर कायम करने में उनके सारे प्रयोग सटीक निशाने पर लगे. बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में बीजेपी को मिली लोकसभा सीटें इसकी मिसाल थीं. लेकिन इससे पहले कि बिहार एक बार फिर यह लहर 2015 में उठती, प्रशांत ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए नया बीड़ा उठा लिया. नीतीश एक मात्र ऐसे नेता थे जिन्हें मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर इतना कष्ट हुआ कि मुख्यमंत्री पद तक छोड़ दिया.

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 रणनीति कारगर हो तो ऐसे नजीते भी मिलते हैं!

नीतीश और मोदी की लड़ाई को बिहार में मुद्दा बना विधानसभा चुनावों के लिए प्रशांत ने एक बार फिर अचूक रणनीति तैयार की. लालू और नीतीश गठजोड़ भले ही पहले हो चुका था - लेकिन उसकी राह पीके ने ही आसान बनाई. जब जब जरूरत पड़ी बीच बचाव कर बीच की राह खोजी और दोनों को राजी कराया. इस दौरान एक बार फिर उन्हें बिहार में वोटर का विधानसभावार आंकड़ा मिला. चुनौती राज्य की सोशल मीडिया के जिन्न को बोतल में बंद करने की थी.

चुनाव के नतीजों ने एक बार फिर राजनीति के धुरंधरों को प्रशांत किशोर के आंकड़ों पर बनी स्ट्रैटेजी का मुरीद कर दिया. इस स्ट्रैटेजी से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन गए और राज्य के मिले नए आंकड़ों के साथ प्रशांत ने उत्तर प्रदेश का रुख कर लिया. अब तक प्रशांत के पास बीजेपी के राष्ट्रीय चुनाव से जुड़े सभी आंकड़े मौजूद थे. चुनावों के लिए बीजेपी बूथ स्तर की क्या तैयारी करती है, किनके साथ तैयारी करती है और कितने लोगों को मैदान पर उतारती है, सबकुछ प्रशांत किशोर को मालूम है. बिहार चुनाव में नीतीश के जरिए उन्हें ऐसे तमाम आंकड़े दो बड़े क्षेत्रीय दल आरजेडी और जेडीयू के भी मिल गए.  

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2017 का यूपी चुनाव

मोदी और नीतीश एपिसोड के बाद कांग्रेस ने पीके को कॉन्ट्रैक्ट दिया है कि 2019 के चुनावों के लिए राहुल गांधी की मजबूत छवि की स्ट्रैटेजी बनाई जाए. इस स्ट्रैटेजी को कारगर करने के लिए 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों में मिनी-स्ट्रैटेजी को लांच किया जाए.

अभी तक प्रशांत किशोर की सफलताओं के ग्राफ को देखते हुए इतना साफ है कि उनके कंप्यूटर में ये तीनों स्ट्रैटेजी मौजूद है. इन रणनीतियों को वह अपनी पेनड्राइव में लेकर पहले नरेंद्र मोदी, फिर नीतीश कुमार और उम्मीद के मुताबिक एक बार राहुल गांधी से शेयर कर चुके हैं.

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 क्या राहुल को मिल चुका है प्रशांत का फॉर्मूला?

धीरे धीरे पीके ने अपनी पेनड्राइव में भारतीय राजनीति से जुड़ी ज्यादातर जानकारी इकट्ठा कर ली है. मोदी, नीतीश और राहुल के लिए बनाई गई स्ट्रैटेजी भले ही उन सबके पास हो लेकिन मास्टर कॉपी तो प्रशांत किशोर के पास के पेनड्राइव में ही मौजूद है.

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सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश चुनावों के लिए किसी नई स्ट्रैटेजी से लैस पेनड्राइव वो किससे शेयर करते हैं? देश की राजनीति में परंपरागत चुनावी आंकड़ों का बेहतरीन इस्तेमाल करने का हुनर वह दो बार दिखा चुके हैं - और नई कामयाबी का इंतजार है. अब तक जुटाए आंकड़ों पर बनी नई रणनीति को लेकर अब वो नई डील किससे करेंगे या किन लोगों के बीच कराएंगे - यही प्रशांत किशोर की अपनी पॉलिटिक्स है.

लेखक

राहुल मिश्र राहुल मिश्र @rmisra

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में असिस्‍टेंट एड‍िटर हैं

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