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Updated: 30 दिसम्बर, 2016 01:28 PM
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सिर्फ वक्त के फासले के हिसाब से ही नहीं, 2019 वैसे भी अभी बहुत दूर है. तब तक यूपी, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर, गोवा और गुजरात जैसे पड़ाव हैं जो बीजेपी के लिए सबसे अहम हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कुछ बातों को अगले आम चुनाव से भी जोड़ कर देखा जा रहा है - मगर वो एक्सपेरिमेंट का हिस्सा भर हो सकती हैं. काफी हद तक ये जानने के लिए कि पब्लिक रिएक्शन कैसा रहता है.

बाकी जो भी हो, फिलहाल टीम मोदी का सारा जोर यूपी चुनाव पर है जो स्वाभाविक तौर पर होना भी चाहिए. नोटबंदी के चलते खेल बिगड़ा हुआ दिख रहा है, लेकिन विपक्षी पार्टियां इसे लेकर खुश होती हैं तो उन्हें बुरी तरह निराश होना पड़ सकता है - कम से कम मोदी को जानने और समझने वाले तो ऐसा ही सोचते हैं.

मेरे पास पापा हैं

मेरे पास सर्जिकल स्ट्राइक है, डिमॉनेटाइजेशन है, फिर बजट है - तुम्हारे पास क्या है? अगर यूपी में सत्ताधारी समाजवादी पार्टी के चमकते चेहरे अखिलेश यादव से ऐसा सवाल पूछा जाए तो जवाब यही मिलेगा - मेरे पास पापा हैं, जिनका जिक्र वो अक्सर नेताजी बोल कर करते हैं.

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समाजवादी पार्टी में झगड़े से अखिलेश यादव को व्यक्तिगत तौर पर फायदा ही हुआ नजर आता है. कुछ सर्वे में भी उनकी लोकप्रियता बढ़ती हुई ही बताई गई है. निजी नुकसान चाहे अमर सिंह को हुआ हो या फिर शिवपाल यादव को, अखिलेश तो लगातार फायदे में हैं. जहां तक टिकट बंटवारे का सवाल है अभी जरूर उसमें शिवपाल यादव की ही मर्जी दिखी है, फिर भी अखिलेश ने अपने निष्ठावान साथियों को टिकट न कटने और मिलने का पक्का यकीन दिलाया है. तरीका भी वो बता देते हैं - वो अपनी लिस्ट नेताजी को सौंप देंगे - उनकी बात कोई काट नहीं सकता.

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नेताजी का आसरा...

और मुलायम सिंह यादव ने भी बड़ी चालाकी मुलायम ने हर रोल के लिए एक खास व्यक्ति खड़ा कर रखा है. अगर मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल और अतीक अंसारी को साथ लेना है तो शिवपाल आगे कर दिये जाते हैं. अगर कांग्रेस के साथ हाथ मिलाना है तो अखिलेश आगे हो जाते हैं - क्योंकि राहुल गांधी को मुलायम और शिवपाल से दूर रहना है लेकिन उसी पार्टी के अच्छे लड़के अखिलेश में उन्हें तमाम अच्छी बातें दिखती हैं. इसी तरह चुनाव से जुड़ी 'भूल-चूक-लेनी-देनी' जैसे मैनेजमेंट के लिए वो अमर सिंह को खड़ा कर देते हैं - जिनका हाशिये पर होना भी झंडूबाम से भी ज्यादा असरदार होता है. आखिर ये सब मुलायम के अलावा कौन इतनी समझदारी से कर सकता है.

मेरे पास 'दम' है

मायावती अपने दलित-मुस्लिम फॉर्मूले के साथ आगे बढ़ रही हैं - इसके अलावा उनके पास समाजवादी पार्टी और बीजेपी की कमजोरियां और अगर कहीं हो पाया तो कांग्रेस के साथ किसी संभाविता गुप्त समझौते का आसरा भी हो सकता है.

मायावती अगड़ों में भी गरीब तबके को आरक्षण देने की बात करती हैं, लेकिन जब वो ये कहती हैं कि जहां कहीं भी सत्ता बनाने का मौका मिला तो दलित और मुस्लिम को भी अवसर मिलेगा. बगैर किसी लाग लपेट के वो साफ कर चुकी हैं कि सतीश मिश्रा उनके लिए क्या मायने रखते हैं. मायावती जानती हैं कि दलित वोट तो उनसे दूर जाने से रहा - और मुस्लिम वोट को नजदीक लाना है तो वैसे ही तरीके अपनाने पड़ेंगे. बीएसपी के सत्ता में आने पर अच्छी कानून व्यवस्था बोनस होगा, ऐसा वो हर बार कहती रहती हैं.

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दम लगा के...

वैसे फिलहाल मायावती का पूरा जोर तो मुस्लिम वोट साधने में है जिसकी बड़ी जिम्मेदारी नसीमुद्दीन सिद्दीकी और उनके बेटे अफजल पर है - भाईचारा रैलियां इसकी मिसाल हैं.

मायावती की ये सामाजिक-धार्मिक इंजीनियरिंग कामयाब हो जाए तो सबका दम निकाल कर छुट्टी कर सकती हैं.

मैं हूं ना...

अकेले दम पर कांग्रेस के पास खुद को चर्चा में बनाए रखने के अलावा अब तक तो कुछ खास नहीं दिखता. जब तक प्रशांत किशोर और राहुल गांधी के भाषण लिखने वालों का आत्मविश्वास बरकरार है कांग्रेस को सुर्खियों में बराबर जगह मिलती रहेगी.

पर चुनावी जमीन पर जगह बनाने के लिए कांग्रेस को दूसरों का ही हाथ थामना होगा, ये भी सौ फीसदी सच है. समाजवादी पार्टी के साथ डील की चर्चा ज्यादा हो रही है और प्लान बी के रूप में उसके पास हमेशा बीएसपी का विकल्प मौजूद है. मुश्किल ये है कि समाजवादी पार्टी 80 से ज्यादा सीटें नहीं देना चाहती और कांग्रेस को 100 से कम मंजूर नहीं है.

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27 साल यूपी बेहाल!

मोदी के खिलाफ राहुल गांधी ने हमले तेज कर दिये हैं और अमर सिंह के मैदान में उतरने से पहले ही उन्होंने शायराना अंदाज अख्तियार कर लिया है. फिलहाल राहुल और मोदी दोनों एक दूसरे पर पर्सनल अटैक कर रहे हैं. फर्क बस इतना है कि मोदी नाम नहीं लेते और राहुल बगैर नाम लिए कोई लाइन ही नहीं बोलते. इन हमलों में एक फर्क और है. राहुल के हमले पर्सनल होने के बावजूद उनका असर जेनरिक ही होता है, ठीक वैसे ही जैसे अरविंद केजरीवाल या ममता बनर्जी के टारगेट करने की स्थिति में होता है.

बावजूद इसके मोदी नाम लेकर राहुल पर निजी हमलों से सीधे सीधे बच रहे हैं. ऐसा शायद बिहार चुनाव के वक्त नीतीश और दिल्ली में केजरीवाल के खिलाफ बयानों और नतीजों के कारण हो सकता है. जब राहुल को सीधे सीधे भला बुरा कहने की नौबत आती है तो मोदी ब्रिगेड फौरन माइक पकड़ लेता है.

बीजेपी को जोश से भर देने वाले सर्जिकल स्ट्राइक के बाद नोटबंदी का सरकार का फैसला गले की हड्डी बन चुका है - अब ले देकर उसे बजट का सहारा है. मोदी सरकार की कोशिश हर तरह से कम्पेंसेट करने की होगी ताकि यूपी चुनाव में बिहार जैसा हाल न हो. लगता तो ऐसा ही है कि मोदी सरकार लोक लुभावन बजट लाने की कोशिश में होगी - लेकिन चुनौतियां इतनी हैं कि ये काम भी बेहद मुश्किल है.

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अगर मोदी के ताजा भाषण पर गौर करें तो वो नया इशारा करते हैं. मोदी ने एक तरीके से साथियों के उन बयानों को अप्रूवल देने की कोशिश की है जिन पर विवाद की स्थिति में वो अक्सर खामोश रह जाते हैं - मसलन, 'जिन्हें ये बात मंजूर न हो, वे पाकिस्तान चले जाएं.'

ऐसा लगता है मोदी अब विरोधियों को उस कैटेगरी में खड़ा करना चाहते हैं जिनसे लोग हद से ज्यादा नफरत करते हैं. पाकिस्तान के साथ विपक्षी नेताओं की तुलना का आखिर क्या मतलब निकाला जाना चाहिए. जैसे आतंकवादियों के घुसपैठ की स्थिति में पाक फौज कवरिंग फायर देती है वैसे ही कुछ नेता बेईमानों को बचाने के लिए प्रयास कर रहे हैं - आखिर मोदी लोगों को यही तो समझाना चाहते हैं.

फिर तो ये देशद्रोही वाली थीम की नयी पैकेजिंग लगती है. यानी अब न तो सर्जिकल स्ट्राइक और न ही नोटबंदी बल्कि उसके बाद बजट का इंतजार कीजिए - अगर कारगर नहीं रहा तो बजट भी बस ब्रेक इवेंट होगा - नया एजेंडा जरूर असली भूकंप लाएगा - मोदी को इंतजार है माकूल मौके और दमदार दस्तूर का.

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