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Updated: 26 अप्रिल, 2017 09:04 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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राजौरी गार्डन का नतीजा बीजेपी के पक्ष में नहीं, बल्कि आप के खिलाफ था. आप नेताओं ने कहा भी था कि लोग जनरैल सिंह के इस्तीफे से नाराज थे. लेकिन एमसीडी चुनाव के नतीजे क्या कहते हैं?

क्या अब भी यही माना जाये कि एमसीडी चुनाव में बीजेपी को वोट इसलिए मिल गये क्योंकि लोग आप से खफा थे? शायद नहीं.

अब तो ये कहना ही बेहतर होगा कि बीजेपी ने जीत का स्वाद भी चख लिया है - और जीतने का नुस्खा भी हासिल कर लिया है. हालात तो यही इशारा कर रहे हैं कि विपक्ष के लिए बीजेपी को रोकना अब मुश्किल होता जा रहा है. मोदी लहर कायम है, ये साबित करने के लिए बीजेपी जीत के हर हथकंडे अपनाने लगी है. हाल के उपचुनाव इसकी मिसाल हैं.

बीजेपी ने रिस्क लिया

मौजूदा पार्षदों ही नहीं उनके रिश्तेदारों को भी टिकट न देकर बीजेपी ने बड़ा रिस्क लिया था. जमे जमाये नेताओं की जगह नये चेहरों को मैदान में उतारना खतरनाक भी हो सकता था, भले ही इसे सूरत और दूसरे निगम चुनावों में बीजेपी आजमा चुकी हो. वैसे आम आदमी पार्टी तो फ्रेश चेहरों के साथ ही विधानसभा चुनाव लड़ी और जीती थी, लेकिन उसके पास तो कोई विकल्प भी नहीं था.

बीजेपी ने एमसीडी चुनावों को वैसे ही लिया जैसे क्रिकेट बोर्ड पहले ट्वेंटी-ट्वेंटी टूर्नामेंट को लेता था. सीनियर खिलाड़ियों को आराम देकर नये जोश को आजमाना. बहरहाल, धोनी तो ऐसे ही प्रयोगों की खोज थे.

narendra modiये मोदी लहर नहीं तो और क्या है...

जो ज्यादा जोखिम उठाता है जीतता भी वही है, इस बार बीजेपी ने इसे सही साबित कर दिया. कुछ देर के लिए बीजेपी का फैसला गलत भी लगने लगा जब उसके छह उम्मीदवारों का नामांकन खारिज हो गया. ऐसा तब हुआ जब बीजेपी ने चार्टर्ड एकाउंटेंट और वकीलों की भारी भरकम फौज भी जुटा रखी थी. दिल्ली बीजेपी का मुखिया होने के नाते नामांकन खारिज होने की पूरी जिम्मेदारी मनोज तिवारी पर आ गई थी जिस पर आलाकमान ने रिपोर्ट भी मांग ली थी. किस्मत अच्छी थी - मनोज तिवारी जश्न मना रहे हैं. नसीबवालों के साथ रहने का इतना फायदा तो होता ही है.

वोट तो कम पड़े, लेकिन...

लगा वोटिंग काफी कम हुई, लेकिन पूरी तरह ऐसा नहीं कहा जा सकता. इस बार 54 फीसदी वोटिंग दर्ज की गयी, जबकि 2012 में 55 फीसदी वोटिंग हुई थी.

असल में, 2015 के विधानसभा चुनाव में 67 फीसदी वोटिंग हुई थी. अगर एमसीडी चुनावों की दिल्ली विधानसभा चुनाव से तुलना की जाये तो लगता है कि वोटिंग काफी कम हुई. चुनावी राजनीति पर नजर रखनेवाले मान कर चल रहे थे कि इस बार बीजेपी, कांग्रेस और आप तीनों मैदान में हैं और जीतने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रखा है, इसलिए वोटिंग ज्यादा होनी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हुआ. ज्यादा वोटिंग से मतलब विधानसभा से भी अधिक की ही अपेक्षा रही होगी.

नतीजों पर हो रही टीवी बहसों में एक सवाल ये भी उठा था कि अगर बीजेपी की लहर थी तो वोटर टर्न-आउट क्यों नहीं बढ़ा. खबरें बताती हैं कि दिल्ली की सरकारी कालोनियों में वोटिंग काफी कम हुई - जिसकी कई वजहें हो सकती हैं.

उधार के औजार और हथियार

बीजेपी ने एमसीडी चुनाव में आम आदमी पार्टी के ही औजार और हथियारों का इस्तेमाल किया, लेकिन इस बार उनसे बेहतर किया. अब तक यही होता रहा कि आप के नेता एजेंडा सेट करते और बीजेपी वाले दिन भर उसका जवाब देते रहते. बीजेपी ने ये बाजी बिलकुल पलट दी - और वो एजेंडा सेट करने लगी. जाहिर है आप नेताओं को टिप्पणी के लिए मजबूर और उसी में मशगूल रहना पड़ा.

यूपी चुनाव में भी बीजेपी ने ऐसे ही नया डिस्कोर्स शुरू किया था. किसी न किसी शहर से बीजेपी के बड़े नेताओं में से कोई एक मंच पर पहुंचता और एक नई थ्योरी दे देता - फिर यूपी के लड़के अखिलेश यादव और राहुल गांधी साथ आते और रिएक्ट करते. मीडिया भी उनसे उन्हीं मुद्दों पर जवाब मांगता और और वो टिप्पणी कर के चलते बनते. वे लोग थोड़ी राहत की सांस लेते कि देखते देखते कभी कसाब तो कभी कब्रिस्तान छा जाता.

विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने बूथ मैनेजमेंट का बेहतरीन उदाहरण पेश किया था, लेकिन इस बार इस मामले में वो सबसे घटिया साबित हुई. देखा गया कि आम आदमी पार्टी के ज्यादातर विधायकों को अपने एमसीडी उम्मीदवार पसंद नहीं थे - इसलिए चुनाव प्रचार में भी उन सभी ने कम ही दिलचस्पी दिखायी. आप नेतृत्व भी ज्यादातर वक्त बयानबाजी और दूसरे राजनीतिक विवादों में ही उलझा रहा इसलिए बूथ मैनेटमेंट पर ध्यान नहीं रहा. बीजेपी पिछले दस साल से एमसीडी पर काबिज रही. विपक्ष का आरोप रहा कि बीजेपी ने कोई काम ही नहीं कराया जबकि साफ सफाई की जिम्मेदारी तो उसी की थी. इस दौरान साफ-सफाई में कमी के चलते गंदगी के अंबार देखे गये. एमसीडी शासन के दौरान बीजेपी के नेताओं पर भ्रष्टाचार के भी गंभीर आरोप लगे.

सवाल ये है कि डेंगू, चिकनगुनिया जैसी बीमारियां और गंदगी से लोग बेहाल रहे, फिर भी वोट बीजेपी को ही दिया. आखिर ऐसा क्यों?

एक तो बीजेपी नेतृत्व यूपी और उत्तराखंड की जीत और गोवा मणिपुर में सरकार बनाकर जोश से भरपूर था. दूसरा, 2015 की हार को लेकर उसे अपना कलेजा ठंडा करना था. बीजेपी की रणनीति और मीडिया मैनेजमेंट इतना दुरूस्त रहा कि उसने एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर की चर्चा तक न होने दी. कहां बीजेपी की परफॉर्मेंस पर बहस होती - और कहां, आप के लिए रेफरेंडम पर चर्चा होने लगी. इस मामले में भी आप नेतृत्व बचाव की ही मुद्रा में रहा. इस जीत ने बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को केजरीवाल को कठघरे में खड़ा करने का एक और मौका दे दिया, "2015 में इसी ईवीएम से केजरीवाल चुनकर आए थे. इसका जवाब दें."

तो क्या इस चुनाव में लोगों ने बीजेपी को जिताने के लिए नहीं, बल्कि आप को हराने के लिए भी वोटिंग की है? इस दावे के पीछे दलील ये है कि लोग बीजेपी से खुश नहीं थे फिर भी वोट दिये. अगर बीजेपी से खुश नहीं थे और आप से खफा थे तो वोट तो कांग्रेस को भी दे सकते थे. लेकिन कांग्रेस को आजमाने की बजाए लोगों ने बीजेपी को ही हैट्रिक का मौका देना ठीक समझा.

लोगों को ये बात समझाने में आप और कांग्रेस दोनों नाकाम रहे और बीजेपी बाजी मार ले गयी - ये बातें बताती हैं कि बीजेपी किस कदर मजबूत हो चली है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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