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Updated: 02 दिसम्बर, 2016 05:10 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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लोकतंत्र बचाने के नेताओं के तौर तरीके भी अजीब होते हैं. लोकतंत्र बचाने के लिए ममता बनर्जी ने राइटर्स बिल्डिंग में रतजगा किया. कुछ दिन पहले सोनिया गांधी ने दिल्ली में लोकतंत्र बचाओ मार्च निकाला था. दोनों का ही मकसद मोदी सरकार से लोकतंत्र बचाना बताया गया.

संसद में एक दिन टीएमसी ने शोर मचाया कि ममता की जान को खतरे में डाला गया - और दूसरे दिन इस बात पर कि लोकतंत्र पर हमला है. सबसे दिलचस्प बात ये है कि इस राजनीतिक रस्साकशी में सेना को भी प्रेस कांफ्रेंस कर सफाई देनी पड़ रही है.

सेना, सियासत और संसद

रिस्क लेना ममता बनर्जी की फितरत है. सिंगूर ममता के राजनीतिक जीवन के रिस्की मामलों की सबसे बड़ी मिसाल है. जिस सिंगूर को ममता ने सत्ता की सीढ़ी बनाया वही कभी गले की हड्डी बन गया, खैर वो दिन भी आया जब ममता को अदालत के जरिये राहत की सांस नसीब हुई - और वो खुद से कह पाई होंगी कि चलो अंत भला तो सब भला.

नोटबंदी पर भी ममता ने बड़ा रिस्क लिया है. ममता को ठीक ठीक मालूम है कि पश्चिम बंगाल में भी ऑटो वाले से लेकर मिडिल क्लास तक हर कोई नोटबंदी के पक्ष में आगे आया है. फिर भी वो लोगों से मिल कर अपनी बात समझा रही हैं. दिल्ली में तो उन्हें मोदी मोदी भी सुनना पड़ा.

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हाल के उपचुनाव में ममता ने पाया कि टीएमसी की जीत का फासला काफी बड़ा रहा, लेकिन शायद उन्हें ये रास नहीं आया कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी का भी वोट परसेंटेज बढ़ रहा है.

तो क्या ममता बीजेपी की इसी बढ़त से डर गई हैं? या फिर ममता को ऐसा लगने लगा है कि वो आगे बढ़ कर पूरे देश में बीजेपी और मोदी को चैलेंज कर सकती हैं. ममता ये तो देख ही रही होंगी कि कांग्रेस की हालत कोई अच्छी नहीं है, नीतीश के महागठबंधन भी रिश्तों की डोर कमजोर पड़ रही है और यूपी में मुलायम परिवार में फूट के बाद पूरा मैदान खाली सा ही दिख रहा है. ममता को ये भी दिख रहा होगा कि यही मौका है जब वो नीतीश कुमार और अरविंद केजरीवाल को पीछे छोड़ आगे बढ़ें.

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लोकतंत्र बचाने की एक मुहिम ये भी!

ममता ने नोटबंदी पर तो रिस्क लिया ही सेना को भी नहीं बख्शा. सेना की ओर से सफाई के बावजूद ममता ने अपने ट्वीट में उसे 'ऑब्सल्युटली रॉन्ग एंड मिसलीडिंग' बताया.

सेना को लेकर ये सियासत संसद तक पहुंची - और फिर सेना की ओर से सफाई तक. ममता के साथ बस अच्छी बात ये रही कि संसद में उन्हें कांग्रेस के अलावा यूपी की पूर्व मुख्यमंत्र मायावती का साथ मिला.

राज्य सभा में मायावती ने मोटे तौर पर तीन बातें कहीं, "बंगाल की मुख्यमंत्री के साथ ज्यादती हो रही है. भारतीय संविधान पर बहुत बड़ा हमला है ये. सेना का राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए."

पहले तो रक्षा मंत्री तस्वीर साफ करने की कोशिश की लेकिन विपक्ष को संतोष नहीं हुआ. उसके बाद सेना की ओर से प्रेस कांफ्रेंस कर पूरे मामले पर स्टैंड क्लियर किया गया. सेना का बयान आने के बाद तो ममता के सारे दावे झूठ साबित हो रहे हैं.

संसद में पर्रिकर की तरह ही प्रेस कांफ्रेंस में बंगाल एरिया के GOC मेजर जनरल सुनील यादव ने इसे सिर्फ रूटीन एक्सरसाइज बताया. टीएमसी का इल्जाम था कि इसके बारे में राज्य सरकार और स्थानीय पुलिस को कोई सूचना नहीं दी थी जिस पर सेना की ओर से पूरे 9 नोटिफिकेशन दिखाए गये. टीएमसी नेताओं के टोल प्लाजा पर वाहनों से पैसे वसूलने के आरोप को भी मेजर जनरल सुनील यादव ने सिरे से खारिज कर दिया.

सेना ने साफ किया कि सिर्फ भारी वाहनों की जानकारी इक्ट्ठा की जा रही है जिसके लिए हर पॉइंट पर सेना के पांच-छह जवान तैनात हैं - और सबसे बड़ी बाद कि उनके पास कोई हथियार नहीं है.

ये नये मिजाज की सियासत है, जरा...

आमतौर पर सियासत की एक अलिखित तहरीर होती है कि अदालत और सेना को हर तरह के विवादों से दूर रखा जाता है. लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक के बाद इसके पैटर्न में तब्दीली देखने को मिली. सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर राहुल गांधी ने भी मोदी सरकार को निशाना बनाया लेकिन खून की दलाली का आरोप लगाया.

अरविंद केजरीवाल ने अलग रास्ता अपनाया और वीडियो मैसेज में बोला कुछ ऐसे बोला कि मोदी जी सबूत पाकिस्तान के मुहं पर दे मारो. केजरीवाल ने अपनी बात कह दी और ज्योतिषियों की तरह भविष्यवाणी सच बताने के लिए भाषाई कलाबाजी को हथियार बनाया. ममता बनर्जी तकरीबन पूरे वक्त चुप ही रहीं.

जैसे ही ममता को शहर के एंट्री प्वाइंट पर सेना के जवानों के खड़े होने की जानकारी दी गई वो आपे से बाहर हो गईं. उनके ट्वीट मिसाल हैं. जब सेना की ईस्टर्न कमान ने ट्वीटर पर अपना पक्ष रखा तो उसे गलत और गुमराह करने वाला करार दिया.

इसे भी पढ़ें : क्या ममता की खामोशी और केजरीवाल के वीडियो मैसेज में कुछ कॉमन है?

आखिर ममता जैसी अनुभवी नेता ने ऐसा क्यों किया? क्या उन्होंने तथ्यों की सच्चाई जानने की जरूरत नहीं समझी. क्या किसी मुख्यमंत्री को बताना पड़ेगा कि सेना को किसी रूटीन एक्सरसाइज के लिए इत्तला देना काफी होता है, परमिशन की जरूरत नहीं पड़ती.

सेना से लोकतंत्र बचाने के नाम पर ममता ने सचिवालय में रात गुजारी, लिहाजा बाकी नेता और कर्मचारी भी डेरा डंडा वहीं डाले रहे. अगर लोकतंत्र बचाने की लड़ाई ऐसे ही लड़ी जाती है तो निश्चित रूप से ममता ने राहुल गांधी को पछाड़ दिया है - लगातार दो दिन तक तो संसद में उन्हीं के नाम और पार्टी का बोलबाला रहा.

अब नोटबंदी के बाद तो ममता ने कसम ही ले ली है - 'मैं मरूं या जिऊं, मोदी को हटाकर रहूंगी.' इसके लिए ममता ने वो सब कर डाला है जिसे इस जन्म में न करने की कसम कभी जरूर ले रखी होंगी. ममता ने अपने जानी दुश्मन लेफ्ट नेताओं से फोन पर बात कर सपोर्ट मांगा. अब तक ममता जिन्हें अपने पॉलिटिकल लाइफ में सबसे बड़ा धोखेबाज मानती रहीं उन मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी से भी उन्हें परहेज नहीं रही. जब उन्होंने लालू को केजरीवाल के गले पड़ते देखा होगा तो उन्हें भी शायद क्रोध आया हो क्योंकि वो तो पटना सिर्फ नीतीश के लिए गई थीं - अब तो राबड़ी देवी के साथ गले मिलते जो तस्वीर छपी है उसमें बरसो पहले बिछुड़ी बहनों के मिलने जैसी खुशी चेहरे पर नजर आ रही है.

वाकई, ये नये मिजाज की सियासत है इसमें न तो नजदीकियों का अहसास होता है न फासले समझ आते हैं.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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