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Updated: 08 जुलाई, 2017 06:11 PM
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ऐसा लगने लगा था कि भारत और चीन में युद्ध कभी भी हो सकता है. जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति एक दूसरे को देख मुस्कुराते और हाथ मिलाते देखा गया तब जाकर लगा कि नहीं अभी ऐसा कुछ नहीं होने वाला.

चीन और भारत की तरह ही महागठबंधन में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार का रिश्ता भी लगता है. जब भी लगता है महागठबंधन तो अब टूटने ही वाला है तभी दोनों एक दूसरे का हाथ थामे या गले मिलते फोटो सेशन के लिए सामने आ जाते हैं.

चीन और भारत के बीच युद्ध की जितनी कम संभावना है उतनी ही महागठबंधन के फिलहाल टूटने की है. एक के पीछे कूटनीतिक का कारोबार है तो दूसरे के पीछे सियासत का.

लालू नहीं चाहेंगे...

चीन का सरकारी मीडिया भारत को लगातार गिदड़भभकी दे रहा है, लेकिन हैम्बर्ग में शी जिनपिंग ने भारत के प्रति अलग रुख अपनाया. जी-20 सम्मेलन में मोदी और शी एक दूसरे को देखकर मुस्कुराये, शुभकामनाएं दीं, मुलाकात की और बातें भीं.

लालू अच्छी तरह जानते हैं कि बगैर महागठबंधन के उनका काम नहीं चलने वाला. सीबीआई को भले ही तोते का तमगा हासिल हो, लेकिन लालू के लिए तोता सीबीआई नहीं नीतीश कुमार हैं. नीतीश लालू के लिए उस तोते की तरह है जिसमें उनके प्राण हैं. तोता पिंजरे से उड़ा नहीं कि लालू की राजनीति का क्या हाल होने वाला है साफ अंदाजा लगाया जा सकता है.

lalu prasad, nitish kumarबात सिर्फ महागठबंधन की नहीं...

लालू और उनके परिवार के खिलाफ सीबीआई की कार्रवाई के जो भी सियासी मायने हों, एक बात तो साफ है कि सीबीआई के पास इतने सबूत तो हैं ही लालू के लिए उससे बच पाना फिलहाल तो नामुमकिन ही है. मुख्यमंत्री रहते चारा घोटाला और रेल मंत्री रहते ताजा घोटाला लालू के गले की फांस बन चुका है.

प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी के खिलाफ लालू लगातार हमलावर बने हुए हैं. लालू हर बार यही कह रहे हैं कि वो डरने वाले नहीं. पता तो लालू को भी है कि वो बुरी तरह फंसे हुए हैं, लेकिन मैसेज देना चाहते हैं कि ये सब सिर्फ और सिर्फ सियासी वजहों से हो रहा है - यानी लालू के खिलाफ अगली हर कार्रवाई को लोग उनकी कुर्बानी के तौर पर देखें.

लालू अपने राजनीतिक जीवन के सबसे कठिन दौर से गुजर रहे हैं. जब चारा घोटाले में लालू को जेल जाने की नौबत आई तो उन्होंने राबड़ी देवी को सत्ता सौंप दी और माना गया कि जेल से रिमोट कंट्रोल के जरिये वो सरकार चलाते रहे. ये इसलिए भी संभव हो पाया क्योंकि उनके समर्थकों की एक लंबी चौड़ी टीम मुस्तैद हुआ करती थी. एक एक करके लालू अपने सारे मजबूत साथियों को गवां चुके हैं - साधु यादव, पप्पू यादव, रामकृपाल यादव जैसा कोई भी निष्ठावान नेता लालू के साथ नहीं है. साथ के नाम पर रघुवंश प्रसाद सिंह, अब्दुल बारी सिद्दीकी और रामचंद्र पूर्वे जैसे नेता जरूर हैं, लेकिन उनकी भी अपनी सीमाएं हैं. तब लालू के जेल जाने पर राबड़ी मुख्यमंत्री थीं, आज डिप्टी सीएम बेटे तेजस्वी की कुर्सी पर भी खतरे के बादल मंडरा रहे हैं.

हां, लालू को कांग्रेस का साथ जरूर मिला है. नीतीश कैबिनेट के चारों कांग्रेसी मंत्री अशोल चौधरी, अवधेश सिंह, अब्दुल जलील और मदन मोहन झा ने लालू से मुलाकात कर समर्थन जताया है.

बाहर भी अशोक चौधरी ने प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह पर तेज हमला बोला है. चौधरी का इल्जाम है कि शाह गुजरात के तड़ीपार थे और मोदी हजारों लोगों की जान लेकर प्रधानमंत्री बने हैं.

चाहेंगे तो नीतीश भी नहीं

महागठबंधन की फिलहाल लालू ही नहीं, नीतीश को भी उतनी ही जरूरत है. लालू और नीतीश दोनों ही मान कर चल रहे होंगे कि ऐसा करना निश्चित रूप से आत्मघाती होगा.

नीतीश को भी पता है कि अगर बीजेपी को खुल्लम खुल्ला खेलने का मौका मिला तो वो उन्हें भी कभी नहीं बख्शने वाली. महाराष्ट्र में बीजेपी ने शिवसेना का क्या हाल किया नीतीश को खासतौर पर याद रहता होगा.

नीतीश के पास वैसे भी कोई बड़ा जनाधार तो है नहीं और जो है उसे वो बीजेपी से हाथ मिलाकर अभी गंवाना तो नहीं ही चाहेंगे. महागठबंधन टूटने पर बीजेपी के 58 विधायकों की बदौलत ही नीतीश सरकार बचा सकते हैं, लेकिन फिर उनके मुस्लिम सपोर्ट बेस का क्या होगा. बीजेपी से नीतीश के गठबंधन तोड़ने की एक वजह ये भी रही - मुस्लिम वोट. 2015 के चुनाव में नीतीश को फायदा भी मिला. बीजेपी को अच्छी तरह मालूम है कि लालू और नीतीश को अलग किये बिना बिहार में उसकी दाल नहीं गलने वाली.

आखिर में लाख टके का एक ही सवाल बचता है - क्या तेजस्वी यादव इस्तीफा देंगे? अगर देंगे भी तो लालू प्रसाद के कहने पर नीतीश के मांगने पर?

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