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Updated: 21 जून, 2017 10:40 PM
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से ज्यादातर मामलों में सरप्राइज अपेक्षित होता है. राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर रामनाथ कोविंद का नाम भी उसी अंदाज में सामने आया. पहली दफा तो लोगों ने ऐसे रिएक्ट भी ऐसे किया जैसे किस गुमनाम शख्स को मोदी ने उम्मीदवार बना दिया. लेकिन ज्यादा देर नहीं लगी, कोविंद नाम के हवा के हल्के सियासी झोंके में ही विपक्ष की एकजुटता रेत के टीले के माफिक बिखरने लगी.

बेहद कड़ी टिप्पणी करने वाली शिवसेना ने भी पलटी मार ली. मायावती को भी काफी सोच समझ कर और अपने बयान के एक एक शब्द को तौल कर पढ़ते देखा गया.

विपक्षी एकता के सबसे मजबूत खंभे नीतीश कुमार ने तो कोविंद के नाम पर इतने कसीदे पढ़े कि उसका कोई हिसाब ही नहीं. अब सवाल ये है कि क्या नीतीश कुमार कोविंद को लेकर अपनी राय बदलेंगे? अगर नहीं बदलते तो विपक्ष की एकजुटता का कितना मतलब रह जाएगा?

तुक्का जो तीर निकला

राजनीति के तमाम जानकार जिन घोड़ों पर दांव लगाये वे सभी गलत साबित हुए. सिर्फ एक शख्स ने जिसे डार्क हॉर्स बताया था उसका अंदाजा सही निकला - ललित मिश्रा. कई सीनियर पत्रकारों ने ललित के ट्वीट पर टिप्पणी भी की कि वो सही निकले. हालांकि, ललित का कहना है, "वो कोई जादूगर नहीं, उन्होंने केवल तुक्का लगाया था.’ ट्विटर पर चल रहे एक सर्वे में ललित ने भी हिस्सा लिया और लिखा, ‘बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद भी डार्क हॉर्स हो सकते हैं.’ ​

lalit mishra tweetएक राजनीतिक भविष्यवाणी जो सच हुई!

क्या नीतीश भी बदल जाएंगे?

ललित मिश्रा के कयास भले ही तीर और तुक्के की पहेली का हिस्सा बने, लेकिन क्या नीतीश कुमार ने भी भविष्य की सियासत भांप ली थी? नीतीश को चाणक्य यूं ही तो कहा नहीं जाता.

तो क्या नीतीश भी डार्क हॉर्स के बारे में अंदाजा लगा चुके थे और सोनिया के भोज से ऐसी ही किसी खास वजह से दूरी बना ली. 26 मई को दिल्ली में सोनिया गांधी ने विपक्ष को राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार पर आम राय के लिए ही तो जुटाया था. लेकिन अगले ही दिन नीतीश कुमार प्रधानमंत्री मोदी के लंच में शामिल हुए. क्या ये सब वास्तव में सिर्फ शिष्टाचार वश ही था. राजनीति में शिष्टाचार भी तो राजनीति के बगैर नहीं निभाया जाता. ऐसा ही शिष्टाचार सोनिया के भोज के साथ भी तो निभाया जा सकता था.

sonia gandhi, lalu prasad, nitish kumarमहागठबंधन पर भी खतरा...

सोनिया के भोज में नीतीश की गैरहाजिरी को लालू से बचने के तौर पर भी प्रचारित किया गया. मगर, 11 जून को लालू के जन्मदिन पर तो ऐसा नहीं हुआ. नीतीश ने न सिर्फ लालू को बधाई दी, बल्कि पुल का उद्घाटन कर सौगात भी दी.

कोविंद को उम्मीदवार बनाये जाने पर नीतीश ने जीभर कर तारीफ की. ये कहा जरूर कि विपक्ष के साथ फैसला लिया जाएगा. नीतीश के हिसाब से देखें तो कोविंद ने राजभवन को कभी बीजेपी का एक्सटेंशन काउंटर नहीं बनने दिया. नीतीश कोविंद को काफी पढ़ा-लिखा और दलितों के उत्थान के लिए काम करने वाला बता चुके हैं. लेकिन क्या अब संभव है कि नीतीश ने कोविंद के बारे में जो कुछ कहा है वो उससे पीछे हट जाएंगे?

modi, kovind, nitishये सियासत कहां तक जाती है?

कहीं ऐसा तो नहीं कि नीतीश ने लंच पॉलिटिक्स से ही अपने रुख का संकेत दे दिया था. सोनिया के भोज से दूरी इसका बड़ा संकेत था जिसको लेकर हर कोई गफलत में रहा.

नीतीश ने जीएसटी पर मोदी सरकार का साथ दिया. तमाम आलोचनाओं से बेपरवाह नोटबंदी की भी तारीफ की. सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठाने वालों को भी कठघरे में खड़ा किया. ये भी सच है कि कभी सुशील मोदी को दही च्यूड़ा खिलाने को लेकर तो कभी कमल के फूल में रंग भरने को लेकर नीतीश और बीजेपी की नजदीकियों की चर्चा भी होती रहती है.

कोविंद ने बदले समीकरण

नीतीश कुमार ही नहीं, कोविंद के नाम पर मायावती भी साफ कर चुकी हैं कि अगर विपक्ष किसी दलित को उम्मीदवार के तौर पर लाता है तभी वो कोविंद के विरोध के बारे में सोचेंगी. मुलायम सिंह यादव तो कोविंद को दोस्त भी बता चुके हैं.

बीजेडी और शिवसेना समर्थन दे ही चुके हैं. बीजेडी को ओडिशा चुनाव में दलितों की नाराजगी न झेलनी पड़े इसलिए भी मजबूरी में ही सही समर्थन करना पड़ा है.

शिवसेना ने पहले तो कड़े तेवर दिखाये - क्या कोविंद के चयन के पीछे वोट बैंक की राजनीति है? उद्धव ठाकरे ने तो कह दिया था कि अगर किसी दलित को इस मकसद से राष्ट्रपति बनाने की कोशिश है कि वो अपना वोटबैंक बढ़ा सके, तो हम इसका समर्थन नहीं करेंगे? लेकिन हृदय परिवर्तन होते ज्यादा देर भी नहीं लगी. नया बयान भी आ गया - अगर यह देश के विकास के लिए किया गया है तो हम समर्थन कर सकते हैं. बढ़िया है, आखिर राजनीति का मतलब क्या है.

विपक्ष के नाम पर बचा कौन

फिर विपक्ष के नाम पर कांग्रेस के साथ बचे कितने हैं? ममता बनर्जी और लेफ्ट के नेता? वायएसआर कांग्रेस ने पहले से ही सरकार के समर्थन की बात कही थी. टीआरएस ने भी कोविंद के नाम पर सहमति जता दी है. एआईएडीएमके का भी सरकार के साथ जाना तय माना जा रहा है.

ऐसे में कोविंद के नाम का समर्थन और विरोध बहुत कुछ निजी पसंद-नापसंद पर भी निर्भर हो गया है. इस मामले में लालू प्रसाद के मन में टीस बची हुई हो सकती है.

2015 का वो लम्हा भला लालू कैसे भूल सकते हैं. मंत्री पद की शपथ लेते वक्त लालू के बेटे तेजप्रताप ने अपेक्षित के बदले उपेक्षित बोल दिया. तब राज्यपाल रामनाथ कोविंद ने तपाक से तेज प्रताप को मंच पर ही टोक दिया. लालू को ये बहुत बुरा लगा था. लालू ने फौरन ही प्रधानमंत्री मोदी को लपेट लिया. लालू का आरोप था कि प्रधानमंत्री ने भी तो अक्षुण्ण के बदले अक्षण्ण शब्द ही तो बोला था, इसलिए उन्हें फिर से शपथ लेनी चाहिये.

सोनिया के साथ साथ राष्ट्रपति चुनाव के नाम पर विपक्ष को एकजुट करने में जी जान से जुटे सीताराम येचुरी शुरू से ही चाहते हैं कि हार जीत के लिए नहीं बल्कि राजनीति के लिए राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष भी अपना उम्मीदवार उतारे. इस मसले पर सीपीआई का भी तकरीबन वही स्टैंड है.

अरविंद केजरीवाल को तो कांग्रेस ने साथ ही नहीं रखा है. वैसे ये भी साफ है कि केजरीवाल तो सरकार के साथ जाने से रहे. इस तरह दुश्मन के दुश्मन की दोस्ती का फायदा भर मिल सकता है. दूर रह कर भी केजरीवाल अगर मोदी विरोध के नाम पर अपने स्टैंड पर कायम रहते हैं तो कांग्रेस के मन की बात अपने आप भी हो जाएगी.

लेकिन क्या पता यू टर्न लेने में माहिर केजरीवाल पलट कर जीतते राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को सपोर्ट ही कर दें? इस नाम पर ही ही सही कि वो किसी दलित उम्मीदवार का विरोध कैसे करें?

राष्ट्रपति चुनाव में तो वैसे भी विपक्ष को जीत की उम्मीद नहीं होनी चाहिये थी. विपक्ष की जीत तो बस इसी में है कि वो किसी तरह एकजुट हो जाएं. अभी नहीं तो 2019 के लिए ही सही. राष्ट्रपति चुनाव में भी विपक्ष को एकजुट करने की शुरुआती कोशिश नीतीश ने ही की थी, लेकिन बाद में कांग्रेस को ये कह कर पहल की सलाह दी कि बड़ी पार्टी तो वही है इसलिए उसका हक बनता है. क्या नीतीश की इस सलाह के पीछे भी वही राजनीतिक दूरदृष्टि रही जो अब सामने नजर आ रही है? फिलहाल बीजेपी के खिलाफ राष्ट्रीय गठबंधन खड़ा करना तो दूर, बिहार का महागठबंधन बचाये रखना भी छोटी चुनौती नहीं है. महागठबंधन बचाये रखने का सीधा मतलब नीतीश कुमार का सोनिया गांधी के साथ बने रहने से ही है.

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