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Updated: 30 सितम्बर, 2016 04:02 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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एक कोर्ट से राहत तो दूसरे से झटका. नीतीश कुमार को ये खबर अदालती सर्जिकल स्ट्राइक जैसी ही लगी होगी. शहाबुद्दीन केस में नीतीश सरकार को सुप्रीम कोर्ट से राहत तो मिली लेकिन खासे जलील होने के बाद. कर क्या रहे थे जब 45 मामलों में जमानत मिली? सरकार के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं बचा था. फिर पटना हाई कोर्ट ने भी शराबबंदी पर नीतीश के नये कानून की हवा निकाल दी है.

अब सवाल ये है कि दो अदालतों के इन दोनों फैसलों का नीतीश की सियासी सेहत पर कितना असर होगा? खासकर, शहाबुद्दीन के फिर से जेल चले जाने के बाद.

शहाबुद्दीन

शहाबुद्दीन केस को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पर बहुतों की नजर होगी लेकिन प्रमुख तौर पर चार लोगों को इसका सबसे ज्यादा इंतजार रहा होगा - एक, चंदा चंदा बाबू और उनके परिवार, दूसरा आशा रंजन, तीसरा नीतीश कुमार और चौथा लालू प्रसाद.

खबर सुन कर चंदा बाबू और उनकी पत्नी के साथ साथ पत्रकार राजदेव रंजन की पत्नी आशा रंजन के कलेजे को बहुत ठंडक मिली होगी. शहाबुद्दीन के जेल से छूट कर आने के बाद डर के साये में इनके 24 कैसे कट रहे थे ये वे ही जानते थे.

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ये तो रहा पीड़ित पक्ष. अब अगर नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की बात करें तो समझना होगा कि उन्हें ये खबर सुनकर कैसा महसूस हुआ होगा? क्या नीतीश और लालू इस खबर को अलग अलग ढंग से महसूस किये होंगे? या फिर नीतीश के साथ साथ लालू प्रसाद भी राहत की सांस लिये होंगे?

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यों ‘रहीम’ सुख दुख सहत...

सुप्रीम कोर्ट में नीतीश सरकार की इस केस में खासी फजीहत हुई. कोर्ट का सवाल था कि आखिर उन्हें हाई कोर्ट से मिली शहाबुद्दीन की जमानत रद्द कराने की इतनी हड़बड़ी क्यों हो गई? शहाबुद्दीन को 45 मामलों जमानत मिली तो उन्होंने अपील क्यों नहीं की. आखिर सरकार कहां सो रही थी कि हाई कोर्ट को जमानत देनी पड़ी.

जाहिर है सरकार ने केस की पैरवी ठीक से नहीं की - और शहाबुद्दीन को कमजोर पैरवी का फायदा मिला. लेकिन सरकार को पैरवी कमजोर क्यों करनी पड़ी, ये भी किसी से छिपा नहीं है. ये तो होना ही था जब नीतीश ने बीजेपी का साथ छोड़ लालू प्रसाद से हाथ मिला लिया. वरना, नीतीश सरकार की पैरवी के चलते ही शहाबुद्दीन को जेल में 11 साल गुजारने पड़े.

शहाबुद्दीन के जेल से छूटते ही नीतीश की सुशासन बाबू वाली छवि को नुकसान पहुंचने लगा था. पीड़ितों की बातें मीडिया के जरिये आने से नीतीश खासा दबाव महसूस कर रहे थे - और ये बात लॉ अफसरों की उस मीटिंग में भी नजर आई जिसे हाल ही में बुलायी गई थी. निश्चित तौर पर नीतीश को शहाबुद्दीन की बेल रद्द होने से राहत मिली होगी. जेल से छूटते ही शहाबुद्दीन ने ये चर्चा बढ़ा दी थी कि नीतीश परिस्थितियों के मुख्यमंत्री हैं जिस पर रघुवंश प्रसाद से लेकर अमर सिंह तक के बयान आ गये.

एक सवाल ये भी है कि क्या लालू भी शहाबुद्दीन के जेल जाने से राहत की सांस ले रहे होंगे? इसका जवाब हां में भी हो सकता है और ना में भी. संभव है लालू प्रसाद को दुख हुआ हो कि इतनी मशक्कत के बाद ऐसा माहौल बनाया कि पार्टी का एक मजबूत नेता बाहर आ सके - लेकिन कानूनी वजहों से उसे फिर से सलाखों के पीछे जाना पड़ा.

संभव ये भी है कि खुद लालू भी राहत महसूस कर रहे हों क्योंकि शहाबुद्दीन ने आकर गठबंधन सरकार की मुश्किलें बढ़ा दी थीं. विरोधी नियमित रूप से सरकार को टारगेट कर रहे थे. वैसे भी लालू ने तो अपना काम कर ही दिया. जिन वोटों के लिए लालू शहाबुद्दीन के सपोर्ट में खड़े थे उन्हें समझा सकते हैं कि अब कानून के आगे वो कर भी क्या सकते हैं.

वैसे भी शहाबुद्दीन के जेल में रहने से इतना ही फर्क पड़ता है कि खुलेआम घूमना फिरना और मेल मुलाकात नहीं हो पाती. नहीं तो क्या विधायक और क्या मंत्री मौके बेमौके लंच और साथ में डिनर कर ही आते हैं. थोड़ा गूगल करके ऐसे फोटो बड़ी आसानी से देखे जा सकते हैं.

शराबबंदी

नीतीश सरकार ने इसी साल 5 अप्रैल को शराबबंदी को लेकर जो नोटिफिकेशन जारी किया था - हाई कोर्ट ने उसे रद्द कर दिया है. कोर्ट न इस कानून के तहत सजा के प्रावधान को अनुचित माना. हालांकि, बिहार में देशी शराब पर प्रतिबंध लागू रहेगा.

पटना हाई कोर्ट के फैसले से बाकी तो जो हुआ है हुआ ही है - नीतीश के इस राजनीतिक अभियान को जरूर झटका लगा है.

जेडीयू का थिंक टैंक इसी कानून की मदद से नीतीश कुमार को राष्ट्रीय फलक पर स्थापित करने में जी जान से जुटा रहा जिससे 2019 में वो प्रधानमंत्री मोदी चुनौती दे सकें.

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बतौर चुनावी वादा बिहार में शराबबंदी लागू करने के बाद नीतीश कुमार ने एक बड़ी मुहिम छेड़ रखी थी - संघमुक्त भारत और शराबमुक्त समाज. इस मुहिम के तहत नीतीश कुमार न सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती देते फिरते थे, बल्कि गठबंधन के अपने साथी लालू प्रसाद को भी हद में रहने को मजबूर करते रहे. लालू के साथी नीतीश पर हमले जरूर करते थे लेकिन वो खुद इसे विपक्ष की साजिश बताकर बात इधर उधर घुमा देते रहे.

पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक के बाद मोदी की बदली छवि और कोर्ट से मिले झटकों के बाद नीतीश के हमलों की धार अब वैसी तो नहीं रहेगी - ये तो तय है. चुनावों के दौरान नीतीश अक्सर रहीम का कोई न कोई दोहा सुनाया करते थे. रहीम का एक दोहा इस वक्त उन्हें काफी सुकून देगा - "यों ‘रहीम’ सुख दुख सहत, बड़े लोग सह सांति. उवत चंद जेहिं भांति सों, अथवत ताही भांति."

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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