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Updated: 26 दिसम्बर, 2016 06:10 PM
आशुतोष मिश्रा
आशुतोष मिश्रा
  @ashutosh.mishra.9809
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यूं ही नहीं कहा जाता कि भारत एक महान मुल्क है. अच्छा हो या बुरा, याद हम हर किसी को रखते हैं. किसी ने अच्छे कर्म किए तो उस नाम को याद रखते हैं और किसी ने बुरे कर्म किए तो उसे भी याद रखते हैं. अब यादों का क्या है? कभी भी कमजोर पड सकती हैं. इसीलिए सदियों पहले हमारे पूर्वजों ने स्मारक बनाने की परंपरा शुरू की. मैं सत़युग, त्रेतायुग और द्वापरयुग से जुडे स्मारकों को चर्चा में लेकर व्यर्थ विवादों को मोल नहीं लेना चाहता. आखिरकार वो विषय आस्था का है और वैसे भी हम आस्थावान भारत में रहते हैं.

हमने ईश्वर में भी आस्था रखी है और ईश्वर का रूप मानकर इंसानों में भी. कुछ ऐसे ही चलन चलता गया और हमने अपनी आस्था के कई बृहद रूप भी देखे. तो स्मारक बनाने वाली आस्था अब स्मारक बनाने के चलन के रूप में चल पडी है. इतिहास ने जिन्हें महान करार दिया, स्मारक उसके भी बन रहे हैं और जिन्हें हमने इतिहास बना दिया स्मारक उनके भी बन रहे हैं. अब भला राणा प्रताप, झांसी की रानी, शिवाजी से लेकर महात्मा गांधी, नेहरू, पटेल और भगत सिंह के स्मारक बनाने से भला किसको ऐतराज हो सकता है! इन सूरमाओं ने देश का इतिहास बदला है. जाहिर है, अब इतिहास की बारी है इन्हें सम्मान देने की. लेकिन स्मारकों के चलन में किसी के कितने स्मारक हों इस पर कभी चर्चा हो सकती है? जैसे एक शहर में कितने स्मारक हों? या एक राज्य में किसी एक हस्ती के कितने स्मारक हों?

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अगर राजस्थान में राणाप्रताप का इतिहास है तो किन किन राज्यों में किन किन शहरों में और किन किन चौराहों पर कितने स्मारक बनेंगे इसका कोई गणित मौजूद नहीं दिखता. झांसी की रानी का स्मारक बुंदेलखंड से लेकर दिल्ली के झंडेवालान तक है. लिख रहा हूं इसका ये मतलब नहीं कि मैं इतिहास के शूरवीरों और उनके पराक्रम पर सवाल उठा रहा हूं. ऐसा भी नहीं है कि मैं ये नहीं चाहता कि हमारी पीढियां अपने पराक्रमी और बलिदानी इतिहास को ना जानें. सफाई इसलिए जरूरी है क्योंकि आजकल सर्टिफिकेट देने का चलन है. बिल्कुल स्मारक बनाने के चलन की तरह. वैसे भी स्मारकों का राजनीतिकरण हो चुका है, और जब भी इतिहास का कोई भी पन्ना राजनीति का शिकार हुआ है, चोट हमारी और आपकी आस्थाओं को पहुंची है.

ये मत कहिए कि मैं इतनी लंबी भूमिका बनाकर शिवाजी के स्मारक पर सवाल उठा रहा हूं. अरे महाराष्ट्र का इतिहास शिवाजी की वीरताओं के किस्सों के बिना कैसे पूरा हो सकता है. मैं सवाल स्मारक बनाने पर भी नहीं उठा रहा वरना ना जाने कौन मुझे हिंदू विरोधी या राष्ट्रविरोधी करार दे दे. आजकल फैशन में है ये सब, अपनी राजनीतिक सुविधानुसार सर्टिफिकेट देना.

मेरा सवाल उस 3600 करोड रुपए को लेकर है जिससे ये पुतला बनेगा़. फडनवीस सरकार की महानता देखिए, शिवाजी के साथ घोडे की प्रतिमा भी बनेगी़. मुंबई में जमीन महंगी है इसलिए बीजेपी सरकार ने जनता को घरों से निकालने की बजाए शिवाजी को दरिया के बीच खडा करने का फैसला कर लिया.

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समुद्र के बीच में कुछ इस तरह से बनाया जाएगा शिवाजी मेमोरियल

हां हां, शिवाजी अकेले नहीं होंगे, पडोसी राज्य में लौह पुरुष सरकार पटेल भी बडी प्रतिमा के रूप में लोगों को दर्शन देंगे. खर्चा 3000 करोड रुपए के लगभग ही है ज्यादा नहीं. ख्वामखाह हम 450 करोड रुपए के मंगलयान को मंगल पर भेजकर इतरा रहे हैं. और मंगलयान कोई स्मारक तो है नहीं जिसपर उद्घाटन करनेवाले माननीयों का नाम होगा.

मैं इसे स्मारक बनाओ प्रतियोगिता के तौर पर भी नहीं देखता. कहीं आप ये ना कह दें कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगर 3000 रुपए में पटेल का सबसे उंचा मेड इन चाइना पुतला बनाया तो नई नई फडनवीस सरकार पीछे क्यों रहे. खर्चा थोडा बढाया तो शिवाजी की मूर्ती घोडे के साथ बन रही है और वो भी सबसे ऊंची और वो भी बीच समंदर में.

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हां हां, मुझे पता है. मायावती के बारे में नहीं लिखा तो मुझे एंटी नेशनल करार देंगे. तो जी स्मारकों के चलन में जो लोग जीवित नहीं हैं और जिन्होंने इतिहास में कुछ योगदान दिया है, उनकी प्रतिमाएं ही बनाने का चलन है. मायावती ने मुख्यमंत्री रहते हुए उत्तर प्रदेश में ना जाने कितने खुद के स्मारक बना दिए. कांशीराम की मूर्तियां, खुद की मूर्तियां तो छोडिए, मायावती ने हाथियों की मूर्तियां तक बनवा दीं. उस पैसे का हिसाब तो गूगल बाबा को भी नहीं है. स्मारकों के चलन में मायावती ने खुद ही इतिहास बना रखा है.

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 उत्तर प्रदेश में मायावती ने खुद की और कांशीराम की मूर्तियों के साथ-साथ हाथियों की भी असंख्य मूर्तियां बनवाईं

कई पार्टियां अपनी-अपनी पार्टी के चेहरों को इतिहास में शामिल करने के लिए स्मारक बनाती रही हैं. जरूर बनाइए लेकिन इन मूर्तियों को बनवाते समय उन लोगों की भी सोचेंगे क्या जो इन मूर्तियों को इतिहास का हिस्सा बनाते हैं. शिवाजी अरब सागर में खडे होंगे. वो एक पर्यटन स्थल बनेगा़. स्पीड बोट से जा पाएंगे और वहां मनोरंजन के सभी साधन होंगे. लेकिन उनके मछुआरों की आवाज मूर्ती के समान पत्थर हो गई है जो कह रहे हैं कि इस निर्माण से समंदर का ईको सिस्टम खराब होगा और उन्हें मछलियां नहीं मिलेंगी.

इससे पहले आप सवाल दागकर मुझे ही आरोपी बना दें कि 'how dare you talk so many questions  and why every time  you talk about poor?' जाने दो नहीं बोलता, लेकिन कुछ "देशद्रोही" कह रहे हैं कि 3600 करोड रुपए के पुतले की बजाए सूखे से पीडित शिवाजी के महाराष्ट्र के किसी एक जिले में ये पूरा पैसा सूखे से निपटने में लगा दिया जाए तो बुरा होगा क्या? कहते हैं कि फिर पूरी योजना को ही शिवाजी का नाम दे दो. उसमें भी तो पत्थर लडेंगे और माननीयों को उद्घाटन का मौका मिलेगा. साथ ही इतिहास में नाम अमर हो जाएगा. चलो माना बडा काम है और मैं सरकारों को भला उनकी जिम्मेदारी का एहसास कराने वाला होता कौन हूं? तो जी विदर्भ के किसी इलाके में इऩ 3600 करोड लगाकर देखिए. 3600 के अनगिनत गुणा के अनुमान में चुनावी फायदा भी हो सकता है.

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 इस प्रोजेक्ट से पर्यावरण प्रभावित होगा और मछुआरों को मछलिया भीं नहीं मिलेंगी

अब ये मत कहिए कि चीन ने सबसे बड़ी बुद्ध की प्रतिमा बनाई तब तुम कहां थे? ये भी मत कहिए कि जब मायावती ने हाथियों के स्मारक बनाए तब तुम कहां थे? जी मैं यहीं था और किसी किसी घटना के समय नहीं भी था. लेकिन मैं कहता हूं कि तुलना क्या मूर्तियां बनाकर करेंगे? चीन के कई किसान अपने खेतों में खाद डालने के लिए छोटे हवाई जहाज का प्रयोग करते हैं. हमारे देश में किसान भी हवा में लहराता है, फर्क इतना है कि वो जहाज में नहीं बैठता बल्कि सस्ती सी रस्सी के सहारे हवा में लहरा उठता है. कुछ लोग उसे खुदकुशी भी कहते हैं.

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जिस राज्य में हर दिन किसान महज कुछ रुपयें के कर्ज ना अदा कर पाने के कारण खुदकुशी कर लेता हो उस राज्य में 3600 करोड रुपए का पुतला कितना जायज है, ये सोचना आपके विवेक पर है. इन पैसों से ना जाने कितने किसानों की जान बचाई जा सकती है, ना जाने कितने स्कूल, अस्पताल बनाए जा सकते हैं और उनका नाम भी हमारे इतिहास से जोड़ा जा सकता है. सिर्फ महाराष्ट्र ही क्यों गुजरात समेत देश के सभी राज्यों की सरकारों से ये उम्मीद क्यों ना करें कि पुतलों पर पैसे खर्च करने से पहले जिंदा इंसानों को पुतला बनने से रोकने पर वो पैसे खर्च किए जाएं. हजारों करोड़ रुपए के स्मारक की बजाए हजारों बेघरों को घर दिए जाएं. इतिहास ऐसे भी तो बनाए जा सकते हैं ना?

लेखक

आशुतोष मिश्रा आशुतोष मिश्रा @ashutosh.mishra.9809

लेखक आजतक में संवाददाता हैं

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