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Updated: 21 जून, 2017 10:26 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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छोटी-मोटी गोष्ठियों की बात और है, लेकिन साहित्य को लेकर बनारस में कोई बड़ा आयोजन देखने को नहीं मिलता. साहित्य महोत्सव के नाम पर कुछ आयोजन होते जरूर रहे हैं लेकिन उनमें वो बात कभी शायद ही दिखी हो. हां, संगीत और सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर केंद्रित गंगा महोत्सव और संकटमोचन संगीत समारोह जैसे आयोजनों ने अलग मुकाम जरूर हासिल किया है.

वाराणसी में इंटरनेशनल लिटफेस्ट के आयोजन की खबर जितना उत्साहित करने वाली है, उसके पीछे की सोच उतनी ही निराशाजनक लगती है. फिलहाल तो ये प्रस्तावित आयोजन कुछ खास मकसद के लिए प्रोपैगैंडा से ज्यादा नहीं लगता.

बनारस लिटफेस्ट

मालूम हुआ है कि बनारस लिटफेस्ट भी जयपुर वाले की तर्ज पर ही आयोजित किया जाएगा. इसी साल अक्टूबर में ये तीन दिनों का आयोजन होगा जिसमें बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी की भी महती सहभागिता होगी.

यूपी की योगी सरकार की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र को इसके लिए खास तौर पर चुना गया है और मुख्य उद्देश्य बताया गया है - लोगों को भारतीय साहित्य और संस्कृति से जोड़ना. योगी सरकार चाहती है कि इस लिटफेस्ट के माध्यम से वो मेहमानों और स्थानीय लोगों को भारतीय साहित्य विशेषकर हिंदी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य से जोड़ा जाये.

foreigners in varanasiकहीं असहिष्णुता पार्ट - 2 तो नहीं? [फोटो, साभार: अपनी काशी]

बाकी सब तो ठीक है, पर इकनॉमिक टाइम्स से बातचीत में एक सरकारी अफसर ने इस लिटफेस्ट के बारे में जो महत्वपूर्ण बात बतायी है वो बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करने वाली है. यूपी सरकार के उस वरिष्ठ अफसर ने अखबार से कहा है, "ये जयपुर लिटफेस्ट जैसे आयोजनों से भी निजात देनेवाला होगा जहां पश्चिम के लेखक ही हावी रहते हैं."

नो-एंट्री लिस्ट

शुरुआती दौर को छोड़ दें तो शायद ही ऐसा कोई साल गुजरा हो जब जयपुर लिटफेस्ट विवादों में न रहा हो. सबसे ज्यादा विवाद तो सलमान रुश्दी को लेकर हुआ है. जैसे ही रुश्दी के लिटफेस्ट में हिस्सा लेने की खबर आती विरोध शुरू हो जाता.

2012 में तो कुछ लेखकों ने उनकी विवादित किताब सैटनिक वर्सेस के एक-दो पैराग्राफ पढ़ कर रुश्दी के सपोर्ट में अपना विरोध भी जताया. पता चला रुचिर जोशी, जीत थाईल, हरि कुंजरू और अमिताव कुमार जैसे लेखकों को कोई नया विवाद खड़ा हो उससे पहले ही शहर से निकल जाने की सलाह दी गयी - और उन्होंने उस पर अमल भी किया.

बाद में कुंजरू ने रुश्दी की किताब को सार्वजनिक रूप से पढ़ने को लेकर अपना पक्ष भी रखा था, "हमारी मंशा किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं थी, बल्कि उस आवाज को उठाना रही जिसे मौत की धमकी से खामोश किया जाता रहा है."

2017 में तो अलग तरीके का ही विवाद हुआ. ये पहला मौका था जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दो नेताओं को बतौर स्पीकर बुलाया गया - और जब मनमोहन वैद्य पहुंचे तो उन्होंने आरक्षण खत्म करने की वकालत कर नया विवाद खड़ा कर दिया. संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण पर बयान को लेकर भी ऐसा ही विवाद हुआ था.

manmohan vaidyaसाहित्य महोत्सव में 'आरक्षण' पर बहस!

जयपुर लिटफेस्ट में विक्रम सेठ, पिको अय्यर, पंकज मिश्रा, पैट्रिक फ्रेंच, वेंडी डोनिगर जैसे लेखक आयोजन को भव्य बनाते रहे हैं. यूपी के उस अफसर की बात मानें तो बनारस लिटफेस्ट में इन जैसे लेखकों के लिए तो पक्का नो एंट्री का बोर्ड लगा होगा. क्षेत्रीय भाषाओं और हिंदी लेखकों और उनके साहित्य के लिए मंच मुहैया कराना अच्छी बात है, लेकिन पश्चिम के साहित्य से छुटकारा दिलाने के उद्देश्य से होने वाले किसी भी आयोजन के व्यापक होने पर पहले ही संदेह पैदा होता है. आखिर ये भी खान-पान को लेकर होने वाले विवादों से कितना अलग है कि साहित्य भी परोसा जाएगा लेकिन कुछ खास परहेज के साथ.

अरुंधती रॉय की किताब 'द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैपिनेस' को दुनिया भर के पाठकों ने चाहे जितना भी पसंद किया हो, बनारस लिटफेस्ट की गेस्ट लिस्ट में मौका तो उन्हें भी नहीं मिलने वाला. हां, अगर मंच पर परेश रावल साहित्य पर लेक्चर देते देखें जायें तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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