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Updated: 22 जून, 2017 02:38 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के महागठबंधन में जब भी कुछ ऊंच-नीच होता है बीजेपी यूं ही निशाने पर आ जाती है. लालू अगर नीतीश को लेकर भी कोई टिप्पणी करना चाहते हैं तो नाम बीजेपी का ही लेते हैं. अपने परिवार के लोगों के ठिकानों पर आयकर के छापों के बाद एक ट्वीट में लालू ने बीजेपी को नये अलाएंस पार्टनर के लिए मुबारकवाद दी थी. हर किसी ने पार्टनर के तौर पर नीतीश को ही समझा. फौरन बाद लालू ने सफाई दी कि उनका मतलब एजेंसियों से था. लगता है लालू को एक बार और भूल सुधार करनी पड़ेगी या फिर सफाई वाला ट्वीट वापस ले लेना पड़ेगा. राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का सपोर्ट कर नीतीश ने लालू को ये मौका तो दे ही दिया है.

लेकिन नीतीश ने विपक्ष का साथ क्यों छोड़ा? क्या नीतीश ने एनडीए फिर से ज्वाइन करने का मन बना लिया है? ये तो तय है कि नीतीश का महागठबंधन वाला कद एनडीए में नहीं रहने वाला, वहां तो नेतृत्व मोदी का ही रहेगा. तो क्या नीतीश ने मोदी नेतृत्व स्वीकार करने का फैसला कर लिया है?

2019 की रेस से बाहर

राष्ट्रपति चुनाव तो विपक्षी एकजुटता के लिए रस्म अदायगी भर है, असल तैयारी तो 2019 के लिए चल रही है. शुरुआती दौर में नीतीश ने ही इस एकजुटता की पहल की. बाद में कांग्रेस को अगुवाई करने की सलाह दी और अब पाला बदलते हुए साथ भी छोड़ दिया.

2019 की तैयारी नीतीश कुमार 2015 के बिहार चुनाव के खत्म होते ही शुरू कर दिये थे. पहले उन्होंने असम चुनाव में बीजेपी को रोकने के लिए गठबंधन की कोशिश की. बनारस पहुंच कर शराबमुक्त समाज और संघ मुक्त भारत का नारा दिया. यूपी चुनाव में भी बीजेपी को रोकने के लिए छोटी-छोटी पार्टियों को जुटाकर महागठबंधन खड़ा करने का प्रयास किया - और चुनावी माहौल बनते ही सब कुछ छोड़ कर पटना में बैठ गये. दिल्ली एमसीडी में भी जेडीयू को खड़ा करने की कोशिश की लेकिन बीजेपी की आंधी में उनके उम्मीदवार कब कहां गये किसी को हवा भी नहीं लगी. अब 2019 के नाम पर महागठबंधन खड़ा होने के पहले ही पलटी मारकर एनडीए कैंडिडेट के सपोर्ट में आ गये हैं.

nitish kumarये नये मिजाज की सियासत है जरा फासले को समझा करो!

अगर वास्तव में नीतीश की पहल 2019 के लिए थी तो क्या अब मान लेना चाहिये की वो खुद को रेस से बाहर कर चुके हैं. यानी अब वो 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को टक्कर नहीं देने वाले.

नीतीश ने ऐसा क्यों किया

वैसे नीतीश जैसे राजनीतिज्ञ का ये कदम यूं ही तो नहीं होगा. इस दांव के पीछे निश्चित तौर पर नीतीश की कोई खास रणनीति होगी. लालू प्रसाद और सोनिया गांधी को नीतीश का ये फैसला परेशान जरूर किया होगा, लेकिन वे ये भी दावा नहीं कर सकते कि उन्होंने महागठबंधन छोड़ या तोड़ दिया है. नीतीश के पुराने स्टैंड को देखें तो एनडीए में रहते हुए भी उन्होंने प्रणब मुखर्जी की उम्मीदवारी का समर्थन किया था - और एनडीए से नाता भी तभी तोड़ा जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया.

क्या नीतीश के विपक्ष का साथ छोड़ने की बड़ी वजह लालू प्रसाद हैं? या कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ही इसकी असली वजह हैं? या फिर बीजेपी से अपने रिश्तों को बनाये रखने भर के लिए नीतीश ने कोविंद की उम्मीदवारी का समर्थन भर किया है? लेकिन क्या इसके बाद नीतीश के लिए फिर से लालू और सोनिया के साथ कोई नयी संयुक्त रणनीति के लिए बैठ कर विचार करना इतना आसान होगा? क्या नीतीश विपक्ष को फिर से विश्वास दिला पाएंगे कि वो पूरी तरह उसके साथ हैं?

लालू और उनके परिवारिक दायित्वों के चलते नीतीश के लिए सरकार चलाना कितना मुश्किल है, समझा जा सकता है. यूपी चुनाव के दौरान तेजस्वी को सीएम बनाने की भीतरी कोशिश की बात भी चर्चाओं में अफवाह नहीं मानी गयी. लालू और माफिया डॉन शहाबुद्दीन के रिश्तों की बात भी सबके सामने ही है. शहाबुद्दीन के जेल से छूटने पर नीतीश की कितनी फजीहत हुई थी, सबको मालूम ही है. शहाबुद्दीन से बातचीत वाली टेप में जिस अंदाज में लालू कहते हैं - एसपी को फोन लगाओ, शासन में उनकी दखल का इससे बड़ा नमूना क्या हो सकता है?

चारा घोटाले में तो लालू को कोर्ट से कोई राहत तो मिली नहीं, ऊपर से जांच एजेंसियों के फंदे में बेटी, दामाद, बेटे और पत्नी सभी फंसदे नजर आ रहे हैं. नीतीश इस बात का भी सहज अंदाजा लगा रहे होंगे कि आगे क्या कुछ हो सकता है? कांग्रेस की ओर से नीतीश कुमार की एक ही मुश्किल रही है - 2019 के लिए राहुल गांधी के अलावा कोई और नाम मंजूर न होना. यानी पूरी ताकत लगाने के बाद भी नीतीश कुमार अगर विपक्ष को एकजुट कर भी लेते तो भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार राहुल गांधी ही होंगे. भला ऐसी राजनीति कौन करना चाहेगा? खासकर वो जिसे राजनीति का चाणक्य कहा जाता रहा हो.

नीतीश के सामने एक सवाल ये भी तो होगा कि कोविंद को सपोर्ट नहीं किया तो उसका क्या मैसेज जाएगा. विचारधारा के नाम पर विरोध और बात है, वरना मायावती भी हिम्मत नहीं जुटा पायीं. वरना, मालूम तो मायावती को भी है कि कोविंद के लिए दलितों का मतलब तो वही है जो बीजेपी की लाइन है. जो बीजेपी के जरिये संघ ने थ्योरी दे रखी है. वही संघ जिसके नेता जब तब आरक्षण को खत्म करने तक की बात करते हैं.

बाद की बात और है. फिलहाल तो ऐसा ही लगता है कि नीतीश ने मोदी के सामने हथियार डाल दिये हैं. वैसे भी 2015 के बिहार चुनाव में नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी से बदला ले लिया था. अब मोदी की बारी है. क्या मोदी नीतीश को बख्श देंगे? फिर नीतीश ने इतना बड़ा रिस्क क्या सोच कर लिया है?

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मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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