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Updated: 29 मार्च, 2017 12:23 PM
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पहले लोकसभा चुनाव उसके बाद अब उत्तर-प्रदेश के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की बुरी हार के बाद फिर से पार्टी को गांधी परिवार से छुटकारा पाने की बातें उठने लगी हैं. लेकिन मजे की बात ये है कि इस तरह की बेतुकी मांगे पार्टी के अंदर से नहीं पार्टी के बाहर के लोग उठा रहे हैं. किसी भी तरह के बदलाव का कदम उठाना या नहीं ये पार्टी के अंदर की बात और इसे तय अकेले पार्टी ही करेगी कि कौन इसका नेतृत्व करेगा. कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व सांसद मणिशंकर अय्यर ने बताया कि क्यों कांग्रेस का अस्तित्व गांधी परिवार के बगैर खत्म हो जाएगा.

1- अगर पार्टी के अंदर इस मुद्दे पर कोई गंभीर असहमति होती तो पिछले तीन सालों में पार्टी के अंदर विद्रोह के लिए पर्याप्त अवसर थे. पहला तब जब पहली बार कांग्रेस ने अपना अब तक का सबसे खराब प्रर्दशन करते हुए लोकसभा में 206 से गिरकर लोकसभा में 44 सीटों पर पहुंच गई. gandhi-family_032717103317.jpgपार्टी में बगावत के कई अवसर आए थे

उसके तुरंत बाद दिल्ली चुनाव हुए थे जिसमें पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई थी. इसी तरह झारखण्ड, महाराष्ट्र, असम में भी कांग्रेस असहाय ही रही. थोड़ी बहुत राहत की खबर बिहार से आई थी. लेकिन फिर यू.पी. और उत्तराखंड की करारी हार ने पार्टी को औंधे मुंह गिरा दिया. भले ही पंजाब से थोड़ी राहत की खबर आई थी लेकिन वहां की जीत के लिए भी कैप्टन अमरिंदर सिंह को ही जिम्मेदार माना जा रहा है.

तो अगर पार्टी में कोई विवाद होता तो इतनी बुरी हार के बाद भी क्या पार्टी में गतिरोध के स्वर नहीं उठते?

2- पार्टी कार्यकर्ताओं को पता है कि नेतृत्व परिवर्तन के बावजूद कांग्रेस के लिए कुछ भी नहीं बदलेगा. क्योंकि यहां पर समस्या की जड़ परिवार नहीं बल्कि पार्टी के अस्तित्व संबंधी मुद्दों पर हुए विस्तार हैं.

3- पार्टी को निश्चित रूप से अपने नेता का चुनाव करना चाहिए. इसमें कोई मुश्किल भी नहीं होनी चाहिए. यहां तक की पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी खुद कई बार कहा है कि अध्यक्ष पद के लिए पार्टी में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव होना चाहिए.  अध्यक्ष पद के लिए पार्टी में पिछली बार चुनाव 2000 में हुए थे. तब पार्टी को लोकसभा में तबतक की सबसे बुरी हार का सामना करना पड़ा था. इस चुनाव में सोनिया गांधी के खिलाफ अध्यक्ष पद के चुनाव में जितेंद्र प्रसाद खड़े हुए थे. जितेन्द्र प्रसाद को कुल 94 वोटों मिले थे और सोनिया गांधी को 9,400 से ऊपर.

लेकिन इसबार तो वो पार्टी के अंदर वो विपक्ष भी नहीं है. ऐसा कोई आस-पास में नहीं दिखता जो राहुल के खिलाफ खड़ा होना चाहेगा. हमारी पार्टी के लोगों को ये समझ में आ गया है कि गांधी परिवार वास्तव में पार्टी को एकजुट रखने के लिए जरुरी है. और ये गोंद की तरह पार्टी को बांधने का काम करते हैं.

4- 1999 के लोकसभा चुनावों में हार के बाद कांग्रेस ने सोनिया गांधी को अध्यक्ष पद से बर्खास्त कर दिया होता तो क्या हम 2004 में जीत पाते? एक सच जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता वो ये है कि यह सोनिया गांधी और उनकी टीम ही थी, जिसने मौके को पहचान तक 2004 में गठबंधन बनाया और अलग विचारधारा के होने के बावजुद पार्टियों को एकजुट किया. इसी गठबंधन ने तात्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे प्रभावशाली और सफल नेता के इंडिया शाइनिंग अभियान की चमक धीमी की थी.

उस साल के सभी आंकड़े यही बताते हैं कि 2003 में वाजपेयी सरकार के विघटन की शुरुआत हुई थी और उसके पीछे सोनिया गांधी की ही मेहनत और कूटनीति काम आई थी. इसी की वजह से अगले दस सालों तक डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में हमने सरकार बनाई.rahul-sonia_032717103358.jpgमहागठबंधन होना चाहिए5- ये सच है कि 2014 में हमारी टीम को करारी हार का सामना करना पड़ा. लेकिन ऐसा इसलिए नहीं था क्योंकि हमने अचानक ही अपनी राजनीतिक प्रबंधन और शासन की सारी क्षमताएं खो दी थी. बल्कि इसके पीछे हमारे गठबंधन का टूटना बड़ा कारण था. गठबंधन के टूटने से 2014 में लगभग हर राज्य में कांग्रेस अकेली पड़ गई थी जिसका नुकसान हमें करारी हार के रूप में उठाना पड़ा.

अपने निर्वाचन क्षेत्र से मैं सातंवी बार खड़ा हुआ था. इसके पहले 1991 में मुझे 1.5 लाख वोट मिले थे, 2004 में 2 लाख और 2014 में कांग्रेस के हीनउम्मीदवार के रूप में मुझे सिर्फ 58,000 वोटों के दम पर जीत मिला थी. और कमोबेश यही हाल पूरे देश में मेरे 44 सहयोगियों का भी था. तो फिर 'जवाबदेही' के नाम पर हम सभी को क्या हम सभी को इस्तीफा दे देना चाहिए था और सोनिया गांधी को राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए था. राहुल गांधी कहीं गायब हो जाते. ठीक वैसे ही जैसा मोदी और उनके समर्थक चाहते हैं.

आखिर क्यों हमारे विरोधी ये तय करेंगे कि हमें करना क्या है ये मुझे समझ ही नहीं आता.

6- मैंने पहले भी कहा है कि अभी के समय में हमारे लिए सबसे अच्छा तरीका है सोनिया गांधी के 2004/09 मॉडल पर लौटना. एक बार फिर से हम  हिंदुत्व विरोधी ताकतों के विरोध में एकत्रित हों और गठबंधन करके एकसाथ आएं. क्योंकि 2014 में इन्ही हिंदुत्व विरोधी ताकतों को 70% मत मिले थे और 2017 के यूपी चुनाव में 60 प्रतिशत वोट मिले हैं. अभी के समय में ऐसा करने की 2004 की तुलना इस गठबंधन की जरुरत ज्यादा है. क्योंकि 2004 में हमारा सामना एक लिबरल संघी और सौम्य नेता अटल बिहारी वाजपेयी जी से था. लेकिन अब अंधकार युग वापस आ गया है.

अगर 2019 में हम देश को नहीं बचाएंगे तो शायद फिर एक ऐसे अंधेरे में डूब जाएंगे जहां से वापस आना नामुमकिन होगा. ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, अखिलेश, स्टालिन, फारूक अब्दुल्ला, सीताराम येचुरी जैसे सभी बड़े नेता भी खुलेआम ऐसे गठबंधन की जरुरत की बात कह चुके हैं. गठबंधन के इस खौफ को खुद आरएसएस भी महसूस कर रहा है तभी तो आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कुछ दिन पहले कोयंबटूर में चेतावनी दी थी कि 'संभल कर रहिए! गठबंधन आने वाला है!'

rahul-sonia-2_032717103437.jpgसोनिया ने गठजो़ड़ की नीति बनाई थी

7- गांधी परिवार की आवाज को किसी ने सुना ही नहीं. हालांकि वो बाहर भी थे लेकिन अब जब वे वापस आ गए हैं तो गठबंधन की संभावना को सच में बदलना होगा ताकि राहुल अपनी आवाज उनकी मांग से मिला सकें. और इसमें सबसे जरुरी हिस्सा मायावती हैं जो अभी तक पूरे सीन से बाहर हैं. यूपी चुनावों में एक ओर जहां सपा-कांग्रेस गठबंधन को 28.5% वोट मिले वहीं मायावती ने अपने 22.5 फीसदी वोटों को बरकरार रखा है. अगर उन्हें यूपी में भी बिहार के महागठबंधन की तरह सपा-कांग्रेस-बसपा का महागठबंधन बना होता तो योगी आदित्यनाथ कभी इतिहास नहीं बन पाते.

8- अब आवश्यक है कि राहुल गांधी के द्वारा 2019 के लिए एक नए गठबंधन (और यदि संभव हो, एक महागठबंधन) की तत्काल घोषणा कर दी जाए. 1988 में राजीव गांधी ने वी.पी. सिंह का मजाक बनाया था और एक साल के अंदर ही वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गए थे. तब नेशनल फ्रंट बन सकता था लेकिन अब जरुरत फेडरल फ्रंट की है जिसका निर्माण राज्यों के द्वारा किया गया जाए. जाहिर है इस गठबंधन में प्रत्येक राज्य में प्रमुख भागीदार भिन्न होंगे. जैसे अगर कांग्रेस और डीएमके तमिलनाडु में अपनी वर्तमान साझेदारी जारी रखते हैं, तो निश्चित रूप से वे तमिलनाडु में प्रस्तावित फेडरल फ्रंट के प्रमुख प्रतिनिधि होंगे. लेकिन बिहार में लालू और नीतीश की निरंतर भागीदारी होगी. इसी तरह यूपी में मायावती और अखिलेश के बीच गठबंधन कराना चाहिए.

9- ऐसा कोई भी गठबन्धन या महागठबंधन तब तक  बीजेपी के लिए एक विश्वसनीय विकल्प नहीं बना सकते, जब तक कि इसमें शासन का एक मजबूत, सकारात्मक और वैकल्पिक एजेंडा मौजूद नहीं होगा.  ये गठबंधन अनुभव और दृष्टि से विकसित होना चाहिए जो ना केवल राष्ट्रीय स्तर पर अपील करता हो बल्कि यह प्रत्येक राज्य में भी बहुमत की जरुरतों को पूरा करता हो. 2004 में यूपीए के कॉमन मिनिमम प्रोग्राम ऐसा ही एक मुद्दा था.

gandhi-family_032717103509.jpgइनका कोई विकल्प नहीं

10- अब मुद्दा ये उठता है कि इस गठबंधन की बागडोर किसके हाथ में होगी. तो इस समय में ऐसा सवाल करना एक गलत कदम होगा. इस चरण पर सवाल पूछने का मतलब है गठबंधन के बनने से पहले ही टूटने की तैयारी करना. गठबंधन को एक साथ लाने की प्रक्रिया में नेतृत्व को व्यवस्थित रूप से विकसित होने दे. राहुल गांधी ने पहले ही दिखा दिया है कि ना को वो लापरवाह हैं और ना ही  अहंकार से ग्रस्त हैं.

राहुल बिहार में नीतीश-लालू गठबन्धन में कांग्रेस की भागीदारी के प्रमुख आर्किटेक्ट थे और महागठबंधन बनने के बाद उन्होंने तीसरे स्थान पर स्थान पर रहना तक स्वीकार कर लिया था. और चुनावों में 41 में से 27 सीटों पर जीत दर्ज की. कभी-कभी जीतने के लिए आगे बढ़ना सबसे अच्छा होता है.

(मणिशंकर अय्यर कांग्रेस पार्टी से पूर्व लोकसभा और राज्यसभा सांसद हैं. इनकी ये प्रतिक्रिया सबसे पहले एनडीटीवी पर प्रकाशित की गई थी)

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