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Updated: 23 अप्रिल, 2017 03:34 PM
मौसमी सिंह
मौसमी सिंह
  @mausami.singh.7
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प्रधानमंत्री ने वीवीआईपी कल्चर खत्म करने के लिए लाल बत्ती की छुट्टी तो कर दी पर क्या इससे नेताओं और नौकरशाहों पर जो लाल रंग चढ़ा है वो भी उतर जाएगा? ये लाल रंग कोई मामूली गुलाल नहीं, ये तो आडंबर, अहंकार और रौब का पक्का रंग है.

सफेदी की चमकार वाली एसयूवी गाड़ियां, झक सफेद कलफ लगे कुर्ते, काले चमकते जूतों और शर्ट के कड़क कॉलर को कभी गौर से देखिए तो आपको अपना चेहरा नजर आएगा. इस आईने में आपको अपना मामूलीपन, गरीबी और मुफलिसी की झलक दिखेगी. वो इसलिए कि इन वरिष्ठ हस्तियों के भौकाल के सामने आप तो बेकार ही हैं. अब ज़रा सोचिए की लाल और नीली बत्तियों पर नजर रखने वाली मीडिया का क्या हाल होता होगा?

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रात भर मैं यही सोचती रही... हमारे ऑफिस ग्रुप के इस मैसेज ने मुझे चिंता में डाल दिया था-

नीरज: 'भैया बहुत तेज़ घूंसा मारा है, छाती पर लगी है' व्हाटसआप पर मैसेज आया.

हरीश: 'हुआ क्या ? कब हुआ ? तुम ठीक तो हो ना? '

नीरज: 'बड़ा दर्द हो रहा रहा है, आज यहां सिक्युरिटी के साथ बड़ा बवाल हो गया..'

ये बातचीत ग्रुप में दो कैमरामैन के बीच चल रही थी. नीरज, उत्तर प्रदेश के मुख्यमांत्री योगी आदित्यनाथ के बुंदेलखंड दौरे की कवरेज के लिए गया था. जब वो रिपोर्टर का वॉकथ्रू करा रहा था उस समय सीएम के सुरक्षाकर्मियों ने उसे ज़ोरदार ईनाम दिया.

आपको बता दें जिस घूंसे का ज़िक्र नीरज कर रहा था वो भी इन वीवीआईपियों की तरह खास है. जितना बड़ा नेता उतना ही मीडियाकर्मियों को खास घूंसे, कोहनी, बंदूक की नोक से चोट लगने की खुशनसीबी मिल सकती है... अगर सुरक्षा वाई या जेड हो तो फिर क्या कहने!!

media-3_042217110634.jpgकैमरामैन के साथ बदसुलूकी करती सिक्योरिटी

उसी रात बुंदेलखंड से जब सीएम लखनऊ वापस आये तो मीडिया उनके इंतज़ार में बैठी थी. सीएम अपने दफ्तर पहुंचे ही थे कि मैंने अपने चैनल पर चल रहे स्टिंग आपरेशन पर सवाल पूछा, पर वो बिना जवाब दिए अंदर चले गए. मामला वहीं खत्म हो जाता कि पीछे से दो मंत्री आ गए. ऑफिस का दबाव था तो मैंने सोचा चलो इनसे प्रतिक्रिया ले लेते हैं. मंत्री थोड़े नए भी थे और शर्मीले भी, तो बात करते, समझते हम सीएम की लिफ्ट तक पहुंच गए. वो सवालों पर ना ना हां हां करते रहे. क्या पता था कि लिफ्ट बंद होते ही हम पर आफत टूट पड़ेगी.

हमारे इर्द गिर्द सुरक्षाकर्मी हाहाकार मचाते रहे और मैं रिपोर्टिंग करती रही. वो दर्जन से ज़्यादा थे और हम दो, मामला बिगड़ता देख मैं कैमरे पर बोलते हुए बाहर की तरफ आने लगी कि तभी मैंने कैमरामैन को लुढ़कते देखा. वहीं मौजूद एक सुरक्षकर्मी ने उनको उठाकर बाहर फेंक दिया था. घटना के बाद मैं घंटो और कुछ दिनों तक हमारे साथ हुई बदसलूकी पर बरसती और बहस करती रही, पर हालात नहीं बदले.

media-2_042217110615.jpgसुरक्षाकर्मियों से उलझती मीडिया

अब चलिए आपको फ्लैशबैक में लिए चलते हैं. गर्मी अपने चरम पर थी, अर्श और फर्श दोनों तप रहे थे. मैं हाथ मे माइक लिए अंधाधुंध भाग रही थी. सर से पांव तक पसीने में सराबोर थी. रायबरेली की संकरी गलियों में कांग्रेस कार्यकर्ता चीटियों के पहाड़ की तरह नजर आ रहे थे. ऊपर से गुलाबों की पंखुड़ियां बरस रही थीं. धूल के बादलों को चीरते हुए सोनिया गांधी का काफिला आगे बढ़ रहा था. इन परिस्थितियों में भी कांग्रेस अध्यक्ष गाड़ी की खिड़की से बाहर निकल हंसते हुए समर्थकों का अभिनंदन कर रही थीं. मेरा लक्ष्य सोनिया का इंटरव्यू(टिक-टैक) नामुमकिन सा लग रहा था. पर रिपोर्टर की भूख बड़ी ज़ालिम होती है. सो दौड़ पड़े हम उनके काफिले के पीछे. कितने मील दौड़े ये तो याद नहीं पर भीड़ में धक्के खूब खाये.

हर दस मिनट में भाग कर जैसे-तैसे उनकी गाड़ी के पास पहुंचते और फिर एसपीजी का सुरक्षा कवच उठा कर पीछे फेंक देता. फिर हमारी कोशिश का रिपीट टेलिकास्ट शुरू होता. इसी बीच एक बार वक्त थम सा गया. मेरा माइक था और सोनिया गांधी, मैंने सवाल किया 'आपको क्या लगता है...रायबरेली और दिल्ली दोनों जीतेंगी? सोनिया ने मेरी तरफ देखा...'ज़रूर जीतेंगे.’ दूसरे क्षण जनता के सैलाब में मैं गोते लगा रही थी.

थक हार के भीड़ से हट अपने कैमरामैन को ढूंढने लगी तो देखा वो एक दुकान की साइड पर बैठे, दर्द से कराह रहे थे. हांफते-हांफते बोले 'आपके पीछे मैं भी भाग रहा था, एसपीजी के जवान मुझे बार-बार पीछे ढकेल रहे थे. फिर पता नहीं क्या हुआ की मैं ज़मीन पर था और मुझे दिन मैं तारे नज़र आ गए. 'उनके छाती में किसी ने इतनी कस कर कोहनी मारी कि उन्हें कई घंटों तक सांस लेने में दिक्कत रही.

इस तरह के किस्से हम जैसे पत्रकार अपनी झोली में लिए घूमते हैं. कुछ नेताओं को कवर करते समय उनके हाई प्रोफाइल स्टेटस का रौब झेलना पड़ता है. कभी कभी तो नेताओं की टिप पर सुरक्षाकर्मी लाल बत्ती का भौकाल जानबूझकर बनाये रखते हैं. जब तक मीडिया और जनता को ऐंठन नहीं दिखाई तब तक नेता का जलवा कायम कैसे होगा?

media-650_042217110712.jpgनेताओं के पीछे दौड़ते मीडियाकर्मी

मायावती संसद पहुंचती नहीं कि उससे पहले उनके सांसद राज्य सभा की करवाई छोड़ गेट नंम्बर 12 के बाहर लाइन हाजिर दिखाई देते हैं. ईद के चांद की तरह जब राहुल गांधी 24 अकबर रोड में नज़र आते हैं तो मीडिया के रोज़े चलते हैं. कांग्रेस ऑफिस के गेट पर ताला लग जाता है, जी नहीं ये मोदी डबल लॉक वाला ताला नहीं है! ये तो सुरक्षा की आड़ में मीडिया को उसकी सही जगह दिखाने की कई कोशिशों में से एक है.

वैसे इस तरह की ढोंगबाजी से मैं दो नेताओं को थोड़ी रियायत देती हूं. श्रीलंका में पीएम का पहला दौरा था. उनका काफिला कोलम्बो के एक मशहूर बौद्ध मंदिर पहुंचा. ये मेरा सुपर एक्सक्लूसिव का मौका था. में इतेफाक से वहां अकेली थी. पीएम गाड़ी से उतरे और बाहर भिक्षुओं से मिल रहे थे. हमने बोलना शुरू किया और बोलते-बोलते पीएम से एक हाथ की दूरी तक पहुंच गए.

ऐसा नहीं था कि पीएम के सुरक्षा घेरे को कोई भी इतनी आसानी से भेद सकता था. पर वहां मौजूद विदेश सचिव और शायद पीएम भी ये जानते थे की अन्य पत्रकारों की तरह मैं उनका दौरा कवर करने दिल्ली से आई थी. वैसे पीएम के कई ऐसे किस्से मशहूर हैं जब उन्होंने सुरक्षाकर्मियों को उनके और कैमरे के बीच मैं आने से मन किया है.

फिर पीएम की तरह प्रियंका गांधी वाड्रा भी अपनी एसपीजी को कई बार जरूरत से ज्यादा कड़क और कठोर होने से रोक चुकी हैं. रायबरेली में एक बार मुझे एसपीजी के बीच भागते देख अपनी गाड़ी रोक बोली 'आप प्लीज़ इनको धक्का मत दीजिये ये अपना काम कर रही हैं' और उनके बर्ताव की भरपाई करते हुए इंटरव्यू भी दे डाला. राहुल गांधी उसी गाड़ी में आगे बैठे थे, सुन भी रहे थे. काश अपनी छोटी बहन से कुछ सबक ले लेते तो उनको कवर कर रहे रिपोर्टरों के बाल झड़ने और वजन गिरने बंद हो जाते.

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मौसमी सिंह मौसमी सिंह @mausami.singh.7

लेखिका आज तक में विशेष संवाददाता हैं.

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