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Updated: 14 मार्च, 2017 09:08 PM
खुशदीप सहगल
खुशदीप सहगल
  @khushdeepsehgal
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पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आने के बाद स्थिति स्पष्ट हो गई है. उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भगवा सुनामी ने विरोधियों को तिनके की तरह उड़ा दिया. पंजाब में कैप्टन के दम के आगे सब प्रतिद्वंदी बेदम साबित हुए. गोवा और मणिपुर में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर जरूर उभरी है लेकिन स्पष्ट बहुमत से दूर है. दोनों राज्यों में सत्ता की कुंजी अन्य और निर्दलीयों के हाथ में रह सकती है.

पहले बात करते हैं उत्तर प्रदेश की. राजनीतिक दृष्टि से देश का सबसे अहम राज्य. आबादी के हिसाब से बात की जाए तो उत्तर प्रदेश विश्व के पांचवें सबसे ज्यादा आबादी वाले देश के बराबर है. उत्तर प्रदेश के नतीजों से साफ है कि बीजेपी के मास्टर रणनीतिकार अमित शाह राज्य में ब्रैंड मोदी की मार्केंटिंग वैसे ही करने में सफल रहे हैं जैसे कि 2014 लोकसभा चुनाव में की गई थी. 1985 के बाद पहला मौका है कि किसी राजनीतिक दल को उत्तर प्रदेश में 250 से अधिक सीटों का आंकड़ा पार किया है. 1985 में उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड अलग नहीं हुआ था. तब भी कांग्रेस ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति की लहर के दम 425 सदस्यीय विधानसभा में 269 सीट जीतने में ही कामयाबी पाई थी.

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उत्तर प्रदेश में इस बार ऐसा क्या हुआ कि कमल की चमक के आगे साइकिल, पंजा, हाथी सभी निस्तेज हो गए. मोदी-शाह की टीम ने जिस तरह उत्तर प्रदेश में बीजेपी के रथ से सभी प्रतिद्वंद्वियों को रौंदा वो चुनावी इतिहास में हमेशा याद किया जाएगा.

यूपी में बीजेपी के चमत्कारिक प्रदर्शन से पहले बात कर ली जाए राज्य के दो बड़े राजनीतिक क्षत्रपों की नाकामी की. यानि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की जिनके इर्दगिर्द पिछले डेढ़ दशक से सत्ता की धुरी घूमती रही है.

शाह से बड़ा कोई रणनीतिकार नहीं   

ये सही है कि ब्रैंड मोदी यूपी चुनाव में सभी प्रतिद्वंद्वियों पर भारी पड़ा लेकिन इसका सारा श्रेय बीजेपी के मास्टर चुनावी रणनीतिकार अमित शाह को जाता है. बीजेपी ने सीएम के लिए अपना उम्मीदवार प्रोजेक्ट किए बिना ये चुनाव लड़ा और पार्टी में सभी वर्गों के नेताओं को एकजुट रखा. प्रदेश में पार्टी के सभी दिग्गज नेताओं को उम्मीद बनी रही कि चुनाव के बाद मुख्यमंत्री के लिए उनके नाम पर भी विचार हो सकता है.

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अमित शाह ने जब टिकटों का बंटवारा किया था तो उन्हें जरूर कुछ आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था लेकिन जिस तरह उन्होंने जातिगत समीकरणों को साधा उससे साबित हो गया है कि उनसे बड़ा चुनावी रणनीतिकार इस वक्त देश में और कोई नहीं है. पिछले कुछ विधानसभा चुनावों को देखें तो बीजेपी की नीति रही है कि किसी राज्य में जो जाति भी सबसे प्रभावी है, उसके सामने बाकी सभी जातियों को जोड़ा जाए. बीजेपी ने ये कार्ड हरियाणा में गैर जाटों, गुजरात में गैर पटेलों और महाराष्ट्र में गैर मराठाओं को साथ जोड़कर चला. अब यही दांव उसने यूपी में गैर यादव ओबीसी और गैर जाटवों को लुभा कर अपने खेमे में लाने से चला. नतीजों से साबित है कि ये दांव बीजेपी को यूपी में खूब फला भी. नोटबंदी से बड़ा मुद्दा यूपी में कानून और व्यवस्था की बदहाली का साबित हुआ.

घर को आग लग गई घर के ही चिराग से

समाजवादी पार्टी के घर की फूट ने ही अखिलेश यादव के सत्ता में दोबारा लौटने के सपने को चकनाचूर कर दिया. राजनीति के रण में सेनापति के लिए बहुत जरूरी होता है अपने घर को एकजुट रखे. इसी मोर्चे पर अखिलेश पूरी तरह नाकाम साबित हुए. पिता मुलायम हो या चाचा शिवपाल यादव समाजवादी पार्टी के साथ रहते हुए भी अखिलेश के लिए अपनी नाराजगी का इजहार करते रहे. रही सही कसर मुलायम सिंह की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता ने आखिरी चरण के चुनाव से पहले अखिलेश के खिलाफ मुंह खोल कर पूरी कर दी.

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अखिलेश के लिए पैर पर दूसरा कुल्हाड़ी मारने वाला कदम कांग्रेस के साथ गठजोड़ करना रहा. कांग्रेस से हाथ मिलाने से समाजवादी पार्टी को कोई फायदा नहीं हुआ. पारंपरिक यादव वोटों के अलावा मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी को उतने ही मिले जितने कांग्रेस से गठबंधन किए बगैर भी मिलते हैं. अखिलेश ने कांग्रेस के लिए 114 सीटें छोड़ी थीं, लेकिन कांग्रेस सीटें जीतने के मामले में दहाई का आंकड़ा भी नहीं छू सकी.

यूपी में एसपी-कांग्रेस गठबंधन ने युवा वोटरों को लुभाने के लिए पूरा जोर लगाया. 'यूपी के लड़के' हो 'यूपी को ये साथ पसंद है' जैसा कोई भी नारा कारगर साबित नहीं हुआ. युवा वोटरों ने भी गठबंधन की जगह कमल पर बटन दबाना ज्यादा पसंद नहीं हुआ. अखिलेश विकास को लेकर अपनी सकारात्मक छवि को भी वोटों में तब्दील करने में सफल नहीं हो सके.

अखिलेश के लिए 'गुजरात के गधों' वाला बयान' देना भी भारी पड़ा. इस बयान पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह गधे को मेहनती बताकर पलटवार किया, उसका मतदाताओं में सकारात्मक संदेश गया.

सातवें और आखिरी चरण के चुनाव से एक दिन पहले लखनऊ में संदिग्ध आतंकी सैफुल्ला के एनकाउंटर ने आतंकवाद के मुद्दे को फिर फ्रंट पर ला दिया. इस घटना का बनारस और आसपास के क्षेत्रों में ऐन मतदान के दिन असर पड़ा.

बीएसपी के लिए वजूद बचाए रखने का सवाल

मायावती उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे आने के बाद धांधली की शिकायत कर रही हैं. कायदे से उन्हें मंथन करना चाहिए कि आखिर पहले क्यों बीएसपी का लोकसभा चुनाव में सफाया हुआ और अब विधानसभा चुनाव में भी पार्टी की बुरी गत हुई.

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2007 में मायावती ने सवर्णों को साथ जोड़कर सोशल इंजीनियरिंग के दम पर सत्ता हासिल की थी. लेकिन अब तमाम कोशिशों के बाद भी मायावती अपने पारंपरिक जाटव वोट बैंक के अलावा अन्य वर्गों को साथ लाने में नाकाम रहीं. इस चुनाव में 100 मुस्लिम उम्मीदवार उतारने का दांव भी मायावती के लिए काम नहीं आया. बीएसपी के लिए रही सही कसर पूर्वी उत्तर प्रदेश में आपराधिक छवि के मुख्तार अंसारी एंड कंपनी से हाथ मिलाकर पूरी हो गई.

पंजाब में अमरिंदर की कैप्टन पारी

75 साल की उम्र में भी कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पंजाब में कांग्रेस को शानदार जीत दिलाकर साबित कर दिया कि उनमें अब भी कितना दमखम है. ये जीत कांग्रेस से ज्यादा खुद कैप्टन की जीत है. पंजाब में चिट्टे (नशे) और भ्रष्टाचार के मुद्दों ने चुनाव से पहले ही ये साफ कर दिया था कि मतदाताओं ने बादल एंड कंपनी को इस बार सत्ता से बेदखल करने का मन बना रखा था.

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लेकिन वहां ये बड़ा सवाल था कि मतदाता किस पर अधिक भरोसा जताएंगे-केजरीवाल की झाड़ू पर या पहले भी देखे-परखे कैप्टन अमरिंदर के हाथ पर. पंजाब के मतदाताओं ने कैप्टन के अनुभव पर अधिक भरोसा किया. बीजेपी पंजाब में अकाली दल की जूनियर पार्टनर थी, इसलिए बादल परिवार के खिलाफ लोगों की नाराजगी का खामियाजा उसे भी भुगतना पड़ा. केजरीवाल कई महीनों से पंजाब में मेहनत कर आम आदमी पार्टी के लिए माहौल बनाने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन पार्टी में चुनाव से पहले ही फूट और मुख्यमंत्री के लिए किसी सशक्त सिख उम्मीदवार को ना पेश कर पाना आम आदमी पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी साबित हुआ. केजरीवाल के लिए ये संतोष की बात हो सकती है कि वो पंजाब विधानसभा का चुनाव उन्होंने पहली बार लड़ा और वो राज्य में अकाली-बीजेपी गठबंधन को पीछे धकेल कर दूसरे नंबर की पार्टी बन गई.  

उत्तराखंड बीजेपी का, गोवा-मणिपुर में खंडित जनादेश

उत्तर प्रदेश और पंजाब के अलावा दूसरे राज्यों की बात की जाए तो उत्तराखंड में भी भगवा सुनामी चली है. उत्तराखंड के अस्तित्व में आने के बाद जो उसका छोटा सा चुनावी इतिहास है उसमें राज्य के मतदाताओं ने किसी भी पार्टी को लगातार दूसरी बार सत्ता नहीं सौंपी है. इस बार के नतीजे भी अलग नहीं है. हरीश रावत के नेतृत्व में कांग्रेस को उत्तराखंड में करारी हार मिली है. पार्टी के कई कद्दावर नेताओं ने चुनाव से पहले बगावत कर बीजेपी का दामन थामा था. बीजेपी ने ऐसे नेताओं को टिकट भी खूब दिया. इसको लेकर बीजेपी के कुछ नेताओं ने असंतोष भी जताया था. लेकिन नतीजे आने के बाद बीजेपी का टिकटों का बंटवारा सही साबित हुआ.

जहां तक गोवा की बात की जाए तो बीजेपी को मौजूदा मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पर्सेकर की हार से झटका लगा है. यहां कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी है लेकिन सरकार बनाने के लिए अन्य दलों से समर्थन लेना पड़ेगा इसलिए यहां विधायकों की खरीद-फरोख्त की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. गोवा जैसी ही स्थिति मणिपुर में है. यहां 2002 से ही कांग्रेस के इबोबी सिंह एकछत्र राज्य करते आ रहे हैं. लेकिन इस बार बीजेपी ने राज्य में पहली बार दमदार उपस्थिति दिखाते हुए इबोबी सिंह तगड़ी टक्कर दी है. मणिपुर में भी सत्ता की कुंजी अन्य और निर्दलीय विधायकों के हाथ में दिखाई दे रही है. यानि मणिपुर में भी आने वाले दिनों में हॉर्स ट्रेडिंग पूरे शबाब में दिखाई दे सकती है. मणिपुर में इरोम शर्मिला ने पहली बार चुनावी राजनीति में कदम रखा लेकिन खुद चुनाव हार गईं. उन्होंने नतीजे आने के बाद राजनीति छोड़ने का ही संकेत दिया है.

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लेखक

खुशदीप सहगल खुशदीप सहगल @khushdeepsehgal

लेखक आजतक में न्यूज़ एडिटर हैं

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