New

होम -> सियासत

 |  6-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 18 सितम्बर, 2016 02:28 PM
स्नेहांशु शेखर
स्नेहांशु शेखर
  @snehanshu.shekhar
  • Total Shares

मुलायम यूं ही नेताजी नहीं कहे जाते. अब उन्हें यह 'नेताजी' का नाम किसने दिया, यह तो नहीं पता. चार दिन से जारी यादव कुल के इस सत्ता संघर्ष के बाद जो संकेत मिले, उसमें एक बात तो तय है कि मुलायम अपने चचेरे भाई के साथ मिलकर अपने पुत्र को राजनीतिक भविष्य का निष्कंटक बनाने में काफी हद तक कामयाब रहे.

मजे की बात यह रही कि इस पूरे फिल्मी ड्रामे में हर पक्ष ने उन्हीं के नाम पर निष्ठा जताई. उन्हीं के नाम की कसम खाई, उन्हीं के आदेश पर जीने-मरने की दुहाई दी. सब अपने-अपने खेमे में बैठे अपनी चालें चलते रहे और उधर नेताजी भी दूर बैठे अपने चचेरे भाई द्वारा तैयार स्क्रिप्ट को फाइनल टच देने में लगे रहे और अंत में जो उपाय निकला, उसमें अंतिम बाजी नेताजी के ही हाथ रही.

मुलायम पहले पहलवान रह चुके हैं. लिहाजा, वे कुश्ती के दांव-पेंच बखूबी जानते हैं. दांव कब इस्तेमाल करना है, कैसे करना है, वो निश्चित जानते हैं. पहलवानी का यह दांव-पेंच वह राजनीति में कई बार इस्तेमाल कर चुके हैं. मामला चूंकि इस बार घरेलू था, इसलिए चाल थोड़ा फूंक-फूंक कर रखना था. अब भले ही घड़ा बाहरी व्यक्ति के मत्थे फोड़ा जा रहा है पर शिवपाल ने एक बात ठीक कही कि बाहरी अगर माहौल खराब करने में लगा था तो अपने जानकार-समझदार क्या कर रहे थे. अपनी समझ कहां गई थी.

अब लखनऊ जाने से पहले मुलायम ने दिल्ली एयरपोर्ट पर जो बाते कहीं, उसके हिसाब से तो निर्णय तो नेताजी और रामगोपाल ने ही लिया था. शिवपाल भी मानने को तैयार नहीं है कि अमर सिह परिवार के खिलाफ काम कर रहे हैं.

यह भी पढ़ें- मुलायम की इस अमर चित्रकथा में माया और शीला कहां हैं ?

दरअसल, मुलायम दुविधा में थे. नारे लगे कि मुलायम की मजबूरी है, शिवपाल जरूरी है. वाकई पार्टी में मुलायम के बाद अगर किसी की कैडर पर पकड़ है तो वह शिवपाल ही हैं. इस टकराव के दौरान कई विधायक जो लखनऊ पहुंचे, खुलकर शिवपाल के साथ खड़े नजर आ रहे थे. मुलायम और रामगोपाल शुरू से इस पक्ष में हैं कि अगर अगला चुनाव अखिलेश सरकार के कामकाज के आधार पर लड़ना है तो पार्टी में उनका कद बड़ा करना पड़ेगा और टिकट बंटवारे में उन्हें छूट देनी पड़ेगी. ताकि वह अपनी सशक्त टीम तैयार कर सकें. लिहाजा संघर्ष इस बात का ज्यादा था कि पार्टी में वर्चस्व मुलायम के बाद किसका रहेगा.

मंत्री और अधिकारी को तो सिर्फ मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किया गया. एक निजी चैनल के कार्यक्रम में अखिलेश ने जो कुछ भी कहा कि उससे भी साफ था कि 2017 की टीम अखिलेश अपने मन की तैयार करना चाहते हैं. कहा कि वह नेताजी की हर बात मानने को तैयार हैं लेकिन टिकट बंटवारे में अपनी प्रमुख भूमिका चाहते हैं.

mulayam-650_091816022344.jpg
 अखिलेश बनाम शिवपाल में कितने सफल रहे मुलायम...

मुलायम के सामने चुनौती यह थी कि वह भाई को खुशफहमी में रखना चाहते हैं कि नेताजी उनके साथ हैं और लक्ष्य भी साधना था कि बेटे को 2017 में कोई दिक्कत न हो. शिवपाल को विभाग तो वापस मिल गए, लेकिन पीडब्लयूडी छोड़कर. उधर बेटे को पार्लियामेंट बोर्ड का प्रमुख बना दिया ताकि उसका मनोबल बना रहे. लगे हाथ उन्होंने कैडर को यह भी जता दिया कि उनके लिए वह बाहरी व्यक्ति भी उतना ही महत्वपूर्ण है क्योंकि बुरे वक्त में उसने उनका बहुत साथ दिया है.

यहां यह बताना जरूरी है कि अखिलेश और रामगोपाल दरअसल अमर सिंह की वेबजह दखल से परेशान थे और उनके खिलाफ कार्रवाई चाह रहे थे. नेताजी ने सुनी सबकी पर की अपने मन की. अब सारे पक्ष यह सोचने में जुटे होंगे तो जश्न मनाए कि गम जताए और जश्न मनाएं तो किस बात की.

यह भी पढ़ें- इस समाजवादी 'महाभारत' का धृतराष्ट्र, भीष्म और शकुनि कौन?

मुलायम की राजनीति को जो करीब से जानते है उन्हें इस बात का अहसास तो था कि शिवपाल चाहे जितने दबाव बना लें, मुलायम से दूर जाने या पार्टी तोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाएंगे. वह भी ऐसे समय में जबकि चुनाव को महज कुछ ही महीने बचे हैं. मुलायम भी यह मजबूरी जानते होंगे इसलिए एक तरफ शिवपाल की पीठ ठोंकते रहे और दूसरी तरफ अखिलेश को शांत रहने का इशारा कर उसका काम भी कर गए.

ध्यान दें तो शनिवार को कार्यकर्ताओं की बैठक में शिवपाल की काफी तारीफ की और यहां तक कह गए कि लोकसभा चुनाव में अखिलेश को सामने रखकर लड़ा गया और तब पार्टी को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा. अब सब जानते है कि 2014 में मोदी के मुकाबले अखिलेश तस्वीर में नहीं थे और नेताजी ही घूम-घूमकर खुद को प्रधानमंत्री बनाने की दुआ और आर्शीवाद मांग रहे थे. लेकिन संभवत यह बातें शिवपाल के जख्मों को मलहम लगाने के मकसद से ही कही जा रही थी.

शिवपाल थोड़ा मुलायम की राजनीति समझने में चूक गए. अगर 2009 और 2012 में मुलायम के राजनीतिक दांव से थोड़ा सबक लिया होता तो थोड़ा सतर्क रहते. 2009 में न्यूक्लियर डील पर अंत-अंत तक वामपंथियों के साथ खड़ा होने के बाद जिस तरीके से वह संसद में कांग्रेस के साथ चले गए वह वामपंथी अब तक नहीं भूले होंगे. 2012 में भी राष्ट्रपति चुनाव में कलाम के नाम पर मीटिंग ममता से करते रहे. ममता दिल्ली में बैठी रही और लखनऊ जाकर मुलायम अंत में प्रणब दा के पक्ष में खड़े हो गए. वह राजनीतिक झटका ऐसा था कि ममता संभवत भविष्य में कभी मुलायम पर यकीन न करें.

2015 में बिहार विधानसभा चुनावों में जब लालू-नीतिश ने मुलायम की अनदेखी की तो मुलायम गठबंधन के खिलाफ ही मैदान में उतर गए और संभवत नुकसान पहुंचाने की नीयत से मोदी तक की तारीफ कर गए.

मुलायम की यही कुछ गलतियां भी रहीं, जिनके कारण विपक्ष के किसी भी गठबंधन में उनके नाम पर कोई सहमति नहीं बन पाती और एक बार जब प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद भी जगी, तब लालू यादव ने पैर के नीचे से चादर खींच ली. और यह सिर्फ कहने-सुनने की बात नहीं है. लालू चारा घोटाले में जेल से निकलने के बाद जब मुजफ्फरनगर गए तो खुलकर कहा था कि ये वो थे जिन्होंने मुलायम को प्रधानमंत्री बनने से रोका था और मौका तब देवगौड़ा और बाद में गुजराल को दे दिया गया.

यह भी पढ़ें- क्या यूपी की राजनीति का नया अध्याय लिखेगी चाचा-भतीजे की ये लड़ाई?

बहरहाल, इस पारिवारिक संघर्ष में नेताजी का दांव कितना सटीक बैठता है यह तो तय नहीं लेकिन रिश्तों की जो गांठ उभर कर सामने आई है, वह चुनाव से पहले नहीं ठीक हुआ, तो नुकसान निश्चित है. हालांकि, रहीम की मानें तो रिश्तों की गांठ तो यूं भी खत्म नहीं होती और राजनीति में तो यह और भी मुश्किल है.

लेखक

स्नेहांशु शेखर स्नेहांशु शेखर @snehanshu.shekhar

लेखक आजतक चैनल के एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय