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Updated: 10 अक्टूबर, 2017 06:13 PM
मिहिर रंजन
मिहिर रंजन
  @ranjanmihir
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स्कूल में बच्चे क्या करने जाते हैं? आप कहेंगे पढ़ने के लिए. मैं भी यही सोचता हूं. लेकिन चंद रोज पहले मेरे एक मित्र की सात साल की बेटी ने जो सवाल मुझसे पूछा, वह मुझे सोचने पर मजबूर कर गया. उसने मुझसे पूछा, 'अंकल स्कूल में चलते हुए किसी लड़के को देखकर मेरे बाल हवा में क्यों नहीं उड़ते?' मैं चौंका! इतनी छोटी बच्ची के ऐसा सवाल पूछने का मतलब समझ में नहीं आया. मैंने उससे कहा- 'बेटा, ऐसा तो नहीं होता. सिर्फ जब तेज हवा चलती है, तभी किसी के बाल उड़ते हैं.' बच्ची ने मुझसे कहा, 'अंकल आप बुद्धू हो. टीवी नहीं देखते क्या?' 

बालों के हवा में उड़ने की कहानी

ye un dino ki baat hai, serialस्कूल में बच्चे ये करने तो नहीं जाते!

मुझे समझते देर नहीं लगी. वह बच्ची आखिर ऐसा क्यों बोल रही थी. पिछले महीने टीवी पर एक नया सीरियल शुरु हुआ है ‘ये उन दिनों की बात है’. सीरियल में कहानी के मुख्य किरदार हैं दो स्कूली बच्चे- नैना और समीर. मासूम बिल्कुल अपने घर के बेटे-बेटी, भतीजे-भतीजे, भांजे-भांजी की तरह. इस सीरियल को अगर आपने 10 मिनट भी देख लिया तो आपको समझते देर नहीं लगेगी कि उस सात साल की बच्ची ने बाल उड़ने वाला सवाल क्यों पूछा था.

'ये उन दिनों की बात है' दो नाबालिग बच्चों के इश्कियापा की कहानी है. ये कहानी है स्कूल में पढ़ाई की जगह मुहब्बत की पाठशाला की. ये कहानी है उन दो होनहारों की, जिन्हें ध्यान तो किताबों पर लगाना चाहिए था, लेकिन शो के प्रोड्यूसर-डायरेक्टर की मेहरबानी से उनका ध्यान प्रेम की पन्ने को उलटने में लगा है. दोनों साथ पढ़ते हैं, लिहाजा मुलाकातें होती हैं. आमना-सामना होता है. फिर उनके बाल उड़ते हैं. शर्म के मारे निगाहें नीची झुकती हैं. गाल सुर्ख लाल हो जाते हैं और दिल में मुहब्बत के फूल खिलने लगते हैं.

सीरियल क्यों है चिंता का सबब

सीरियलों में कमसिनों की दिल्लगी की कहानी दिखाना कोई नई बात नहीं है. यह सब्जेक्ट बिकता है. पब्लिक उसे देखती है. लेकिन स्कूल यूनिफॉर्म में यही कहानी देखकर मैं डर-सा गया. डर इसलिए गया क्योंकि मेरी तरह सैंकड़ों हजारों लोगों के बच्चे भी जब स्कूल जाएंगे तो वे वहां डॉक्टर इंजीनयर बनने की जगह, नैना और समीर की तरह मुहब्बत के परिंदे बनना चाहेंगे. अगर उन्होंने ये सीरियल देखा तो उनके लिए स्कूल जाने का मतलब पढ़ना कम और प्यार की ऐसी पींगे बढ़ाना ज्यादा होगा.

जैसा कि सीरियल का नाम है, 'ये उन दिनों की बात है', बार-बार इसमें 'उन दिनों की मुहब्बत' के तरीके के बात की जाती है. जैसे कि उन दिनों में एक दूसरे को छूना छोटी बात नहीं है. हाथ मिला ले तो रात भर नींद नहीं आती. गले मिल लिए तो मानो सगाई हो गई. मतलब साफ है कि कहानी लिखने वाले ने उन दिनों की कहानी को आज के समय के साथ बखूबी जोड़ दिया है कि ये उन दिनों की बात है. आज के जमाने में ये सब आम बात है. सीरियल की यही कहानी अगर कॉलेज के फर्स्ट ईयर की होती और बच्चे यूनिफॉर्म में नहीं होते तो शायद मैं नहीं डरता. लेकिन स्कूल यूनिफॉर्म में मुहब्बत पर इतना ज्यादा फोकस देखकर मैं भयभीत हो गया हूं. आखिर सीरियल के डायरेक्टर प्रोड्यूसर चाहते क्या हैं? माना कि आज के जमाने के बच्चे पहले के मुकाबले वक्त से आगे चल रहे हैं, लेकिन 10वीं या 11वीं में प्यार में पीएचडी करते हुए देखकर थोड़ी सिहरन-सी हो रही है.

आखिर कहां फंसा है हुक

ye un dino ki baat hai, serialपढ़ाई की जगह प्यार का पुराण स्कूल में नहीं बांचा जाता

'ये उन दिनों की बात है' की कहानी का प्लॉट और उससे उपजी चिंता को देखकर यह जानने की जिज्ञासा हुई कि आखिर कौन है, जो इस तरह का सीरियल बना रहा है? देखा तो नाम दिखाई दिया सुमित-शशि प्रोडक्शन्स का. एक बारगी झटका-सा लगा क्योंकि इस प्रोडक्शन्स के बनाए सीरियल 'दीया और बाती' का मैं भी कायल था. उस सीरियल के जरिए जो मैसेज समाज में देने की कोशिश की गई थी, वह बेमिसाल थी. इसलिए सीरियल महीनों नहीं, बल्कि सालों चला.

उसके बाद भी इस प्रोडक्शन्स ने कई सीरियल बनाए जो कामयाब रहे. तो फिर इस तरह के प्लॉट पर सीरियल बनाने की क्या जरूरत थी? तो उसका जवाब पाने में मुझे ज्यादा दिक्कत नहीं हुई. इस सीरियल ने 'पहरेदार पिया की' सीरियल को रिप्लेस किया है. 'पहरेदार पिया की' वही सीरियल है, जिस पर बाल विवाह को बढ़ावा देने का आरोप लगा था. लोगों ने 18 साल की युवती के 10 साल के बालक के साथ प्रेम और विवाह का जोरदार विरोध किया था. आखिरकार सीरियल को बेमौत मरना पड़ा था. वह सीरियल भी इसी प्रॉड्क्शन हाउस का बनाया हुआ था. ऐसे में लगता है प्रॉडक्शन हाउस के कर्ता-धर्ता नाबालिगों की प्रेम कहानी पर अटक से गए हैं. वे किसी भी कीमत पर इस प्लॉट को जनता के सामने परोस ही देना चाहते हैं. तभी तो जब एक सीरियल को मजबूरन बंद करना पड़ा तो मसाला मिक्स करके एक और आइटम परोस दिया गया. पब्लिक करे तो क्या करे

जिनके बच्चे तीसरी-चौथी क्लास से ऊपर की क्लास में हैं, ऐसी चार-पांच मम्मियों से मैंने जानना चाहा कि अपने बच्ची-बच्चे को नैना या समीर के रोल में देखकर उन्हें कैसा लगता? लगभग सभी का एक जैसा जवाब था. अफेयर और आजादी के नाम पर खुली छूट के लिए तो कॉलेज है ही, इन्हें तो अभी से जल्दी मची है. हम तो चैनल बदल देते हैं.

अब डायरेक्टर साहब अगर सुन पा रहे हैं तो एक बात पर गौर फरमाएं. सीरियल में नैना कहती है कि यह डीडीएलजे से भी पहले की बात है. हम मान भी लेते हैं. ऐसे में जब उस जमाने में 10वीं में अफेयर टाइप बात आप दिखाएंगे तो आज के जमाने में तो चौथी-पांचवीं के बच्चे आपका सीरियल देखकर ऐसा करने की सोचने लगेंगे. डायरेक्टर-प्रड्यूसर साहब इंटरनेट के जमाने में वैसे भी बच्चे के ऊपर समय से पहले बड़े होने के खतरे हैं. ऐसे में स्कूली बच्चों को अपने सीरियल के जरिए इश्क सिखाने की जगह कुछ दूसरी बातें सिखाते तो अच्छा लगता. आज जो कुछ आप हमारे सामने परोस रहे हैं, उसे देखकर तो हम आपको यही कह सकते हैं कि प्रोड्यसर-डायरेक्टर साहब आप हमारी नस्ल खराब कर रहे हैं.

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लेखक

मिहिर रंजन मिहिर रंजन @ranjanmihir

लेखक आजतक में एसोसिएट एक्जिक्यूटिव प्रोड्यूसर हैं

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