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Updated: 04 अक्टूबर, 2015 10:09 AM
ऋचा साकल्ले
ऋचा साकल्ले
  @richa.sakalley
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सत्य में गजब का आकर्षण होता है. सच दिखाने वाला आकर्षित करता है. हर कोई करना चाहता है सच के साथ प्रयोग. शायद यही वजह है कि रियलिस्टिक और एक्सपेरिमेंटल सिनेमा आज के दौर का सिनेमा बन गया है. रियलिस्टिक सिनेमा की भी दो कैटेगरी है. एक तो बायोपिक टाइप की रियलिस्टिक फिल्में जिनमें गांधी, सरदार, पान सिंह तोमर, भाग मिल्खा भाग, मैरीकॉम जैसी फिल्में हैं जो बिना किसी लाग लपेट के बड़ी सहजता से बन पड़ी हैं. यह आसान है. जैसी कहानी है उसे वैसा ही सिल्वर स्क्रीन पर उतारना. लेकिन चुनौती बनता है वो रियलिस्टिक फिल्में बनाना जो वास्तविक दुनिया में विवादास्पद हैं.

सिनेमाकारों को उन घटनाओं को पर्दे पर उतारना थोड़ा जटिल होता है. हालांकि बॉलीवुड के निर्माता-निर्देशक अब ये जोखिम आसानी से उठाने लगे हैं. हाल ही में आई मेघना गुलजार और विशाल भारद्वाज की फिल्म तलवार इसी कैटेगरी की फिल्म है. आरुषि मर्डर पर बनी ये फिल्म शानदार है. जबरदस्त पटकथा, बेहतरीन संवाद और कसा हुआ निर्देशन. यही नहीं गुलजार के लिरिक्स ने भावना के स्तर पर हम सब के अवचेतन में दबे मासूम आरुषि के कत्ल के जख्मों को उभारने की सफल कोशिश की है.

इतने विवादास्पद मसले को पर्दे पर उतारना मेघना और विशाल के लिए आसान नहीं होगा ये हम समझ सकते हैं. दरअसल सत्य घटनाओं पर बनने वाली फिल्मों में फिल्म के एकतरफा हो जाने का खतरा होता है और मास ओपिनियन भी प्रभावित होता है. आरुषि केस में मास ओपिनियन यही है कि कि मां-बाप बेटी के कातिल हो ही नहीं सकते. लोग इसे ऑनर किलिंग मान ही नहीं रहे लेकिन फिल्म में मेघना-विशाल की सहानुभूति तलवार दंपति के लिए साफ झलकी है.

अगर इस फिल्म के जरिए कोई ओपिनियन फॉर्म करना ही था तो नौकर भी कातिल हो सकते हैं, इस विचार को भी तवज्जो मिलनी चाहिए थी ताकि इस फिल्म के जरिए आरुषि केस के पक्ष में बहस का कोई प्लेटफॉर्म खड़ा किया जा सके. क्योंकि बहस तभी हो सकती है जब दो विचारों का टकराव हो. हालांकि फिल्म में एक थ्योरी नौकरों को भी कातिल पेश करती है लेकिन वो तलवार दंपति की सहानुभूति के औरा में कहीं दब गया है. मीडिया ने भी ऐसा ही किया. एकपक्षीय दलीलें दीं और बेहिसाब दलीलों और दबाव के बीच न्याय की प्रक्रिया दिशाहीन हुई.

कहने का तात्पर्य ये है कि फिल्में और मीडिया सिर्फ मनोरंजन ही नहीं मॉस कम्युनिकेशन का भी टूल हैं. मीडिया और फिल्में समाज को एक दिशा दे सकती है. मास मीडिया के माध्यम से कम्युनिकेशन एक ऐसे उत्प्रेरक की तरह होना चाहिए जो समाज को आंदोलित कर सके. आपको याद ही होगा जसिका लाल हत्याकांड में वो मीडिया ही था जिसकी इच्छाशक्ति की बदौलत ही जसिका लाल को इंसाफ मिला. इस केस पर बनी विद्या बालन और रानी मुखर्जी की फिल्म नो वन किल्ड जसिका ने जसिका की बहन के न्याय पाने के लिए संघर्ष को बखूबी दिखाया था और समाज इस बात के लिेए संवेदनशील बना कि विवादास्पद मामलों में इंसाफ की डगर आसां नहीं. बाद में भी कुछ फिल्में सत्य घटनाओं पर बनी जैसे शाहिद, द डर्टी पिक्चर, नॉट ए लव स्टोरी, स्पेशल 26 और फिराक.

इनमें से नंदिता दास की फिल्म फिराक दिल को छू लेने वाली कहानी थी. गुजरात दंगों पर बनी ये फिल्म बड़ी संजीदा थी और बड़ी आसानी से इसने लोगों के साथ संवाद किया. फिल्म को देखने के बाद वो दर्द महसूस हुआ कि नरसंहार और सांप्रदायिक तनाव के समय कैसे अलग-अलग सोच के लोग अपना जीवन जीते हैं और किस मनोदशा के साथ सामान्य होने की तरफ कदम बढ़ाते हैं. खैर, एक बार फिर तलवार फिल्म ने आरुषि केस को जिंदा किया है. एक नई बहस छेड़ने की कोशिश की है. उम्मीद है कि समाज में इसके प्रति संवाद बनेगा और आरुषि को मिलने वाले इंसाफ में शायद अहम भूमिका निभाएगा.

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लेखक

ऋचा साकल्ले ऋचा साकल्ले @richa.sakalley

लेेखिका टीवीटुडे में प्रोड्यूसर हैं.

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