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Updated: 01 अक्टूबर, 2015 11:01 AM
अल्‍पयू सिंह
अल्‍पयू सिंह
  @alpyu.singh
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''बोस्की ब्याहने का वक्त आया है... यूं भी लगता है कि जो मोड़ भी अब आएगा... वो किसी और तरफ मुड़ के चली जाएगी... उगते हुए सूरज की तरफ... और मैं सीधा ही कुछ दूर अकेला जाकर... शाम के दूसरे सूरज में समा जाऊंगा...''

बेटी मेघना के लिए ये जज्बाती बात गुलजा़र साहब ने अपनी किताब' रात पश्मीने की' में ज़ाहिर किए हैं. मेघना पिता गुलज़ार के लिए बोस्की हैं,  जिसका मतलब होता है नरम. ज़िंदगी के हर एक लम्हे को लफ्ज़ों की सुनहली रंगत से सजाने वाले गुलज़ार के लिए बोस्की कई नज्मों की प्रेरणा रही हैं. कई मुख्त़सलिफ तरीकों से, कई दफे अपनी बेटी के लिए. मुहब्बत को गुलज़ार ने अपने अंदाज़ में ज़ाहिर किया है, तो जब बेटी मेघना गुलज़ार की आने वाली फिल्म तलवार के लिए उन्हें गीत लिखने के लिए कहा गया तो कलम से कागज़ पर एक बार फिर पिता की भावनाएं ही आईं....गीत ''वो ज़िंदा है''  की शक्ल में.

7 साल पहले की एक मर्डर मिस्ट्री ...अनगिनत सवाल.. कई जांचें... कई थ्योरियां और कई कहानियां भी. एक फिल्म और किताबें भी सामने आ चुकी हैं. फिर आरूषि तलवार पर एक और फिल्म क्यों? सवाल पर मेघना कहती हैं कि सब की ही तरह जब उन्होंने भी इसे टीवी पर एक न्यूज़ स्टोरी की तरह देखा तो कई सवाल ज़हन में अनसुलझे ही रह गए, और इस फिल्म के ज़रिए केस पर नई बहस छेड़ना चाहती हैं. कहा जा रहा है कि फिल्म कुरोसोवा की एपिक रशोमन की तर्ज पर बनी है, जिसमें एक ही घटना को कई तरीके से उकेरा गया है... हर किरदार के अलग-अलग नजरिए से.

लेकिन मेघना के जवाब से ज्यादा मुफीद लगती हैं गुलज़ार साहब के लिखे गीत की वो लाइन जो उन्होंने इस फिल्म के लिए लिखा, कि वो ज़िंदा है. सही तो है. आरूषि तलवार अभी भी ज़िंदा है...13 साल की उस बच्ची की मौत के बाद भी क्यों उसकी कब्र को उघाड़ कर देखा जा रहा है. क्यों दिलो-दिमाग में वो ज़िंदा है ...उस कहानी की शक्ल में जिसके हर मोड़ पर सवाल ही सवाल हैं. क्यों हम भूल नहीं पाते कि 15-16 मई 2008 की रात को नोएडा के एक घर में क्या हुआ था? क्यों हमें सभी सवालों के जवाब चाहिए? क्या वजह है कि सिनेमा से भी ज्यादा काल्पनिक बन चुकी हकीकत के निशां हम सिनेमा की किस्सागोई में ही तलाश रहे हैं. दरअसल इन सवालों की तह में कई परेशान करने वाली सच्चाईयां हैं. सनसनी पैदा करने वाले रोमांच की कहानियों और थ्योरियों से इतर मन का एक कोना ऐसा है जो ज्यादातर के लिए ये मानने को राज़ी नहीं होता कि सच वो ही है...वैसा ही है..जैसा दिखाया गया..बताया गया...मनवाया गया.

हम क्यों टीवी स्क्रीन पर न्यूज़ स्टोरी के दौरान दिखने वाली आरूषि की चमकीली खूबसूरत आंखों की उत्सुकता के पार जाकर उन रिश्तों की सच्चाई में झांक लेना चाहते हैं जो उसके इर्द गिर्द रहे थे. ये मानने में अब भी दिक्कत क्यों महसूस होती है कि एक मां-बाप ने ही अपने घर में अपनी ही बेटी को कत्ल किया होगा. जबकि शीना मर्डर केस की सच्चाई हमारे सामने है तो क्यों उस पर यकीन करना आरुषि केस के मुकाबले ज्यादा आसान है. दरअसल तकलीफ और उलझन बढ़ाने वाले ये वही सवाल हैं जिन्होंने आरूषि केस को अब तलक जिंदा रखा हुआ है.

गुलजा़र को बेटी के काम पर फ़क्र है. वो कहते हैं कि ''मुझसे सीखे बिना ही इसने अपनी बात कहनी सीख ली है...जबान सीख ली है. इनके कदम आगे चल रहे हैं मुझसे. ऐसा कहते वक्त उनकी आंखों की रुहानियत और लहज़े की नर्मी में जो संवेदनाएं छुपी हैं उसी का अक्स शायद है जो हम मां बाप और बच्चों के रिश्ते में देखते हैं,देखना चाहते हैं. इसी के बरक्स आरुषि की कहानी इसीलिए दिलचस्प न होकर त्रासद है और ज़हन के किसी कोने में सिमट कर बैठ गई है उस टीस की तरह जो तब-तब बाहर आ जाती है....जब-जब उसके चेहरे का स्मित टीवी स्क्रीन पर फैला सा दिखाई पड़ता है. सही कहते हैं गुलज़ार साहब उस बच्ची को अब भी टीवी पर देख महसूस होता कि वो ज़िंदा है.

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लेखक

अल्‍पयू सिंह अल्‍पयू सिंह @alpyu.singh

लेखक आज तक न्यूज चैनल में एसोसिएट सीनियर प्रोड्यूसर हैं.

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