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Updated: 22 सितम्बर, 2017 01:22 PM
सिद्धार्थ हुसैन
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'भूमि' देखने की सबसे अहम वजह

1) संजय दत्त, संजय और संजय दत्त.

2) जेल से रिहा होने के बाद संजय दत्त की पहली फिल्म.

3) अपनी उम्र के हिसाब का किरदार.

4) एक्शन पैक और रिवेंज ड्रामा में दत्त.

5) नेशनल अवॉर्ड विनर डायरेक्टर उमंग कुमार के साथ उनकी पहली फिल्म.

'भूमि' से पहले 2014 में आमिर खान की फिल्म 'पीके' में दिखे थे संजय दत्त वो भी गेस्ट अपियरेंस में.

जेल से रिहा होने के तक़रीबन डेढ साल बाद संजय दत्त दिखेंगे फ़िल्मी परदे पर और वो भी लीड रोल में. 'भूमि' कहानी है अदिति राव हायद्री की. भूमि आगरा में अपने पिता संजय दत्त के साथ सुकून की ज़िंदगी गुज़ार रही है. अदिति (भूमि) और पिता संजय दत्त (अरुण) बहुत खुश हैं क्योंकि जल्द ही 'भूमि' की शादी होने वाली है. वो भी अपनी पसंद के लड़के से.

लेकिन इसी दौरान 'भूमि' के जीवन में एक दर्दनाक हादसा होता है. शहर के चार लड़के भूमि की आबरू लूटते हैं. इसके बाद भूमि की शादी तो टूटती ही है, साथ ही टूटता है क़ानून में बाप-बेटी का विश्वास. दोनों इस हादसे के बाद भी समाज में जीने की कोशिश करते हैं. लेकिन गुंडों का आतंक पिता को क़ानून अपने हाथ में लेने के लिये मजबूर कर देता है. और फिर किस तरह संजय दत्त (अरुण) अपनी बेटी के अपमान का बदला लेता है. ज़ुल्म की इंतेहा को खत्म करता है.

sanjay Dutt, Bhumiसंजय दत्त के कमबैक के लायक फिल्म नहीं है

कहानी की सबसे कमजोर बात ये है कि इस विषय पर अमिताभ बच्चन की 'पिंक' श्रीदेवी की 'मॉम' और रवीना टंडन की 'मातृ' पहले ही बन चुकी हैं. लेखक संदीप सिंह की कहानी में नयापन नहीं है. फिल्म में आगे क्या होगा ये दर्शक पहले ही समझ जायेंगे. राज शेंडिल्या के स्क्रीनप्ले में 80 के दशक का अंदाज छलकता है जो अब बासी लगता है. हालांकि बाप बेटी के इमोशनल सीन असरदार हैं. लेकिन मुद्दे तक पहुंचने में बहुत वक्त लगता है और फिर पिता का बदला लेने का अंदाज कई पुरानी फिल्मों की याद दिलाता है. इससे फिल्म की गति पर भी असर पडता है.

फिल्म की शुरूआत ही गाने से होती है और इंटरवल के बाद भी फिल्म गाने से ही शुरू होती है. तो या तो गाने इतने दमदार होते कि फिल्म को गति दे पाते. लेकिन ऐसा भी नहीं है. सब मिलाकर फिल्म बहुत लंबी लगती है. उमंग कुमार 'भूमि' से बेहतर फिल्म बना चुके हैं. इस बार वो ये तय नहीं कर पाये कि कमर्शियल फिल्म बनाना चाहते थे या फिर रियलिस्टिक फिल्म. सहूलियत भरा निर्देशन एक मज़बूत छाप नहीं छोड़ पाया. 

अब बात कमज़ोरियों के बीच सबसे मज़बूत कड़ी यानी संजय दत्त की. दत्त ने पिता के किरदार को बख़ूबी निभाया है. चाहे अपनी बिटिया से लाड़ करना हो या बदले की आग में जलना. पिता के हर रंग में वो जंच रहे हैं. संजय दत्त के अभिनय में कोई कमी नहीं है. बस अफ़सोस इस बात का जरूर है कि कमबैक के लिये और बेहतर फिल्म चुनते. अदिति ने भी अपना किरदार ईमानदारी से निभाया और संजय दत्त की बेटी के रोल में फ़िट बैठती हैं. खलनायक के रोल में शरद केलकर ख़तरनाक भी लगे हैं और खूंखार भी. 

सचिन जिगर का म्यूजिक बहुत कमजोर है और गाने फिल्म की लय को तोड़ते हैं. लेकिन इस्माइल दरबार का बैकग्राउंड स्कोर दमदार है. सिनेमेटोग्राफर आर्तर जुरावस्की के काम में सच्चाई है. लेकिन जयेश शिखरखने की एडिटिंग बेहतर होती तो फिल्म थोड़ा बच सकती थी. संजय दत्त के फैन्स सिर्फ उनके लिये इस फिल्म को देख सकते हैं. लेकिन उम्मीद यही है कि जल्द संजय दत्त मुन्नाभाई के अगले पार्ट में नज़र आयें और एक बार फिर दर्शकों के दिल पर छा जायें.

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सिद्धार्थ हुसैन सिद्धार्थ हुसैन @siddharth.hussain

लेखक आजतक में इंटरटेनमेंट एडिटर हैं

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